________________
प्रारंभिक एवं मध्ययुगीन मराठी जैन साहित्य
२२३
निबद्ध है। मराठी में इस विषय पर अन्य कोई रचना प्राप्त नहीं है। दूसरी विशेष बात यह है कि इसके रचयिता अन्धे थे ऐसा उनके प्रशस्तिश्लोकों से ज्ञात होता है। माणिकनंदि
ये कारंजा के भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य थे। इनकी पांच छोटी रच. नाएं उपलब्ध हैं। गुरु-आरती में ४, चन्द्रनाथ-आरती में. ५, शीतलनाथ आरती ( इसे समवसरण आरती भी कहा गया है ) में ४ तथा अनन्तनाथ आरती में ५ कडवक हैं । अनन्तनाथ आरती में रचनाकाल शक १६४६ बताया गया है ।२ माणिकनंदि की पांचवीं रचना ऋषभपूजा में ९ पद्य हैं। जिनसागर
ये भी कारंजा के भट्टारक देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य थे। इनका पहला नाम जिनदास था। गुरु के साथ इन्होंने गिरनार आदि तीर्थों की यात्रा की थी। मराठी में इनकी २६ रचनाएँ प्राप्त हैं। इनमें सबसे बड़ी रचना जीवन्धरपुराण में १० अध्याय और १५३० ओवी हैं। उत्तरपुराण और जीवंधररास के आधार पर इसकी रचना शक १६५६ में हुई थी। राजद्रोही मंत्री काष्टांगार द्वारा जीवंधर के पिता की हत्या, निर्वासित स्थिति में बीता उसका बचपन, विद्याध्ययन, साहसपूर्ण यात्राएं, आठ विवाह, राज्यप्राप्ति, वैराग्य, तपस्या
और मुक्ति के प्रसंग जिनसागर ने सरस भाषा में अंकित किये हैं। आदित्यव्रत, अनन्तव्रत, पुष्पांजलिव्रत, निर्दोषसप्तमीव्रत, कलशदशमीव्रत तथा सुगन्धदशमीव्रत की कथाएँ जिनसागर ने लिखी हैं। इनमें आदित्य, अनन्त
१. प्र० म०, पृष्ठ ८१ ।
२. जिनदास चवडे, वर्धा द्वारा १९०४ में प्रकाशित आरतीसंग्रह में गुरु आरती प्रकाशित है, इन्हीं के १९२५ के आरतीसंग्रह में शेष तीन आरतियां प्रकाशित हैं । ऋषभपूजा हमारे हस्तलिखित संग्रह में है।
३. 'जिनसागर की समग्र कविता' यह संकलन हमने संपादित किया था जो जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर द्वारा १९५९ में प्रकाशित हुआ। अन्यत्र .. प्रकाशित रचनाओं की सूचना आगे दी है।
४. जिनदास चवडे, वर्धा द्वारा सन् १९०४ में यह प्रकाशित हुआ था। इसमें रचना वर्ष गलती से शक १६६६ छपा है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org