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मराठी जैन साहित्य का इतिहास
जिनपूजा के व्रत के पालन से गरूड नामक राजा को प्राप्त हुए शुभ फल की यह कथा है । निर्दोषसप्तमीव्रतकथा में १२० ओवी हैं । भाद्रपद शुक्ल सप्तमी - को उपवास कर यह व्रत किया जाता था । इसके फल से रूपलक्ष्मी नामक श्राविका को उत्तम सुख प्राप्त हुआ, पड़ोसिन द्वारा ईर्ष्याविश भेजा गया - कृष्ण सर्प भी उसके पुण्य प्रभाव से रत्नहार बन गया । 1 नेमिनाथ-भवान्तर में ७१ कडवकों में माता शिवादेवी के साथ सम्वाद के रूप में नेमिनाथ के 'पूर्वजन्मों की कथा वर्णित है । नेमीश्वरगीत में १० कडवकों में राजमती की विरह वेदना का वर्णन है । महावीरपालना १६ कडवकों का गीत है, इसमें भगवान् के जन्मोत्सव का वर्णन है । शान्तिनाथस्तोत्र ११ श्लोकों की भक्तिपूर्ण रचना है । चिन्तामणि- आरती में अम्बापुर के जिनमंदिर की तथा अरहंतआरती में नंदीपुर के जिनमंदिर की मुख्य जिन मूर्तियों के प्रशंसात्मक वर्णन हैं । महीचन्द्र की एक हिन्दी रचना कालीगोरीसम्वाद उपलब्ध है । इनके चार शिष्यों की मराठी रचनाओं का परिचय आगे दिया है ।
( महाकोति
ये महीचन्द्र के शिष्य थे । इनकी एकमात्र उपलब्ध रचना शीलपताका - शक १६२० ( सन् १६९८ ) में पूर्ण हुई थी। इसमें ३ अध्याय और ५५२ ओवी हैं । वेश्यासक्त पति को चतुराई से सन्मार्ग पर लानेवाली सती चम्पावती की रोचक कथा ब्रह्मजिनदास की गुजराती रचना के आधार पर कवि ने मराठी में लिखी है ।
चिन्तामणि
ये भी महीचन्द्र के शिष्य थे । गुणकोतिरचित अपूर्ण पद्मपुराण में इन्होंने सात अध्याय जोड़े। कुलभूषण देशभूषण, जटायु, चन्द्रनखा आदि की कथाए इन अध्यायों में वर्णित हैं ।
१. हमारे संग्रह में यह हस्तलिखित कथा उपलब्ध है ।
२. शीलपुराण नाम से जिनदास चवडे, वर्धा द्वारा प्रकाशित, सन् १९०९ । इसका दो बार पुनर्मुद्रण भी हुआ था । शीलतरंगिनीपुराण नाम से जयचन्द्र श्रावणे, वर्धा द्वारा भी यह कथा प्रकाशित हुई थी, प्रकाशनवर्ष मालूम नहीं हो सका ।
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