________________
२१६
मराठी जैन साहित्य का इतिहास पुण्यसागर
ये भा लातूर के भ० अजितकीर्ति के शिष्य थे, अतः इनका समय भी सन् १६५० से १६७५ के आसपास निश्चित है। इन्होंने जिनदासरचित अपूर्ण हरिवंशपुराण में १२ अध्याय जोड़कर उसे पूर्ण किया था। इनकी दूसरी रचना रविवारव्रतकथा के दो संस्करण मिलते हैं। एक में १८. और दूसरे में ३३२ ओवी हैं। रविवारव्रत या आदित्यव्रत आषाढ़ शुक्ल पक्ष के अन्तिम रविवार से प्रारम्भ कर नौ रविवार तक किया जाता था। इसमें उपवास या एकाशन कर भगवान पार्श्वनाथ की पूजा की जाती थी। इसके पालन से गुणधर नामक श्रेष्ठिपुत्र और उसके परिवार की दरिद्रता नष्ट हुई और पद्मावती देवी की कृपा से संपन्नता प्राप्त हुई ।। विशालकीर्ति (प्रथम)
ये अजितकीर्ति के बाद भट्टारक हुए थे। इनके द्वारा शक १५९२ ( सन् १६७०) में स्थापित नन्दीश्वर मूर्ति नागपुर के बड़े पार्श्वनाथ मन्दिर में उपलब्ध है। इनकी एकमात्र उपलब्ध रचना रुक्मिणीव्रतकथा में १५२ ओवी हैं। श्रीकृष्ण की पटरानी रुक्मिणी ने पूर्वजन्म में जो व्रत किया था, उसका शुभफल इस कथा द्वारा बताया गया है। यह व्रत भाद्रपद शुक्ल अष्टमी के दिन उपवास करके किया जाता था तथा प्रत्येक प्रहर में एक बार के हिसाब से आठ बार जिनपूजा की जाती थी। पंत साबाजी
उपयुक्त विशालकीर्ति के शिष्य पंत साबाजी की सुगन्धदशमीव्रतकथा उपलब्ध है। इसमें २६१ ओवी हैं तथा इसकी रचना शक १५८७ ( सन् १६६५ ) में पूर्ण हुई थी। मुनि को दूषित आहार देने के परिणामस्वरूप एक रानी को अनेक जन्मों तक कष्ट सहना पड़ा, उसका शरीर दुर्गन्धयुक्त हुआ, फिर भाद्रपद शुक्ल दशमी को उपवास कर जिनपूजा करने के फलस्वरूप अगले जन्म में उसे उत्तम सुगन्धयुक्त शरीर प्राप्त हुआ, सौतेली मां द्वारा दिये गये
१. प्रा० म०, पृष्ठ ६० । २. प्रा० म०, पृष्ठ ६२ ।
३. इसका परिचय हमने 'प्रतिष्ठान' मासिक, औरंगाबाद, मई १९६० में अपने लेख में दिया था।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org