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भानुकीर्ति
ये औरंगाबाद पीठ के भट्टारक पासकीर्ति ( जिनका परिचय ऊपर आ चुका है ) के बाद भट्टारक हुए थे । कारंजा के भ० धर्मभूषण ने उन्हें इस पद पर प्रतिष्ठित किया था । धर्मभूषण की ज्ञात तिथियाँ सन् १६५० से १६७५ तक हैं, इसी के आसपास भानुकीर्ति का समय समझना चाहिए । दामा पण्डित की दानशीलतपभावना का अन्तिम अंश इन्होंने पूर्ण किया था इसके चार पद भी उपलब्ध हैं जिनकी पद्यसंख्या ४, ५, ७ और १४ है । पहले पद में पार्श्वनाथ की स्तुति है, दूसरे में आत्मानुभव के आनन्द की चर्चा है. तीसरा और चौथा वैराग्य के उपदेश के लिए है ।
दयासागर (दयाभूषण)
ये उपर्युक्त भानुकीति के बाद भट्टारक हुए थे । पहला नाम था और दयाभूषण भट्टारकपद प्राप्त होने के नाम था । इनका जन्म सोहेरवाल जाति में हुआ था। इनके लब्ध हैं । धर्मामृतपुराण' में दस अध्याय हैं । सम्यग्दर्शन के आठ अंगों के पालन के लिए प्रसिद्ध अञ्जनचोर, अनन्तमती आदि की कथाओं का यह सरस संग्रह है । भविष्यदत्त बन्धुदत्त पुराण में भी १० अध्याय हैं । द्वीपान्तरों की यात्रा करने वाले साहसी व्यापारी भविष्यदत्त और उसके लोभी साथी बन्धुदत्त की मनोरंजक कथा इसमें वर्णित है । सम्यक्त्वकौमुदी में ११ अध्याय और २३८० ओवी हैं। सेठ वृषभदास और उनकी आठ पत्नियों को सम्यक्त्व की प्राप्ति होने से निमित्तभूत अद्भुत कथाओं का यह संग्रह है । कवि ने भविष्यदत्त की कथा रास भाषा (गुजराती) के ग्रन्थ के आधार पर तथा शेष दो ग्रंथ संस्कृत ग्रंथों के आधार पर लिखे थे ।
मराठी जैन साहित्य का इतिहास
१. प्र० जिनदास चवडे, वर्धा, १९०७ ।
२. प्रा० म०, पृष्ठ ५२ ।
३. प्र० जिनदास चवडे, वर्धा,
चिमना पण्डित
इन्होंने कारंजा के भ० धर्मभूषण तथा लातूर के भ० अजितकीर्ति का गुरु के रूप में उल्लेख किया है । अतः इनका समय सन् १६५० से १६७५
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१९०८ ।
इनका
दयासागर समय रखा गया
तीन ग्रन्थ उप
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