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प्रास्ताविक
महाराष्ट्र प्रदेश, जिसकी जनभाषा मराठी कहलाती है, से जैनधर्म का सम्बन्ध पुरातन है । इस प्रदेश के गजपंथ पर्वत को सात बलभद्रों का निर्वाणस्थान माना गया है, तुंगी पर्वत को राम तथा कुंथुगिरि पर्वत को कुलभूषणदेशभूषण का मुक्तिस्थान माना गया है । 1 प्रभावकचरित की कथाओं के अनुसार वज्रसेन, कालक, पादलिप्त, सिद्धसेन आदि आचार्यों ने महाराष्ट्र में विहार किया था । नयनन्दि के सकल - विधिविधान काव्य के अनुसार आचार्य वीरसेन, जिनसेन, महाकवि धनंजय, व महाकवि स्वयंभूदेव का निवासस्थान वाटग्राम वहाड (विदर्भ) देश में था जो महाराष्ट्र के पूर्वी भाग (विशेषत: अमरावती, अकोला, यवतमाल और बुलडाणा जिलों) का प्रचलित नाम है । 3 धाराशिव (उस्मानाबाद), अंकाई ( मनमाड के पास), अंजनेरी (नासिक के पास), एलोरा आदि के गुहामन्दिरों से तथा कोल्हापुर, पैठन, शिरपुर आदि के - मन्दिरों से इस प्रदेश में जैन समाज की समृद्ध अवस्था का पता चलता है ।
१.
महाराष्ट्र के इतिहास का प्रारम्भ ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में सातवाहन राजवंश से होता है । तब महाराष्ट्री प्राकृत इस प्रदेश की जनभाषा और राजभाषा थी । कालान्तर में इस भाषा का जो परिवर्तित रूप लोक व्यवहार में रूढ़ हुआ उसे अपभ्रंश भाषा कहा जाता है । सातवीं-आठवीं शताब्दी में प्रौढ़ साहित्य के माध्यम के रूप में प्रतिष्ठित इस अपभ्रंश से ही मराठी, गुजराती, हिन्दी आदि भाषाएँ विकसित हुई । इसलिए कुछ विद्वानों ने अपभ्रंश रचनाओं को प्राचीन हिन्दी कहा है तो कुछ ने उन्हें राष्ट्रकूटकालीन मराठी भी कहा है । *
१. तीर्थं कन्दनसंग्रह (जीवराज ग्रन्थमाला, शोलापुर, १९६५), पृष्ठ १३०, १३७ तथा १४७ ।
२. प्रभावकचरित ( निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १९०९), पृष्ठ १२, ४४, ६७, १०२ ।
३. जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह, भाग २, (वीरसेवा मन्दिर, दिल्ली, १९६३), पृष्ठ २७ ।
४. देखें, सह्याद्रि मासिक (पूना, अप्रैल, १९४१ ) में प्रकाशित डा० तगारे का लेख ।
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