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कन्नड जैन साहित्य का इतिहास अध्याय हैं । प्रारम्भ के चार अध्यायों में कवि ने प्रायः संस्कृत छन्दों के सम्बंध में ही लिखा है । परंतु अंतिम अध्याय में अन्य कन्नड ग्रंथों में अनुपलब्ध कन्नड छंदों के प्राणभूत छंद ध्रुव, भट्ट, त्रिपुट, रूपक, जंपक, अष्ट और एक आदिताल प्रतिपादित हैं । इसी प्रकार द्विपदि त्रिपदि, लावणि आदि के सुन्दर लक्ष्य एवं लक्षण भी दिये गये हैं । ग्रंथ का अंतिम अध्याय वैशिष्ट्यपूर्ण है । यह लघुकाय छंदोग्रंथ छंदशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए विशेष उपयोगी है ।
लगभग ई० सन् १३वीं शताब्दी में जीवित कवि रट्ट का 'रट्टमत' नामक एक जैन ज्योतिष ग्रंथ भी मिलता है । यह ८१८ विविध छंदों में रचित, १२ अध्यायों का एक वृहद् ग्रंथ है । वस्तुतः 'रट्ट' कवि की उपाधि है । इनका वास्तविक नाम दूसरा ही होगा । इस कृति में केवल वर्षा के लक्षण विशेष रूप से प्रतिपादित हैं । वर्षा, फसल आदि कृषि से सम्बद्ध विषय इसमें सुंदर ढंग से विस्तारपूर्वक वर्णित हैं। कृषकों के लिए यह ग्रंथ विशेष उपयोगी है | ज्योतिषशास्त्र एवं अपने अनुभव के आधार पर कवि ने अपने इस ग्रंथ में कृषकों के लाभप्रद अनेक उपयुक्त विषयों की चर्चा की है । इसमें जमीन पर पानी को खोज निकालने, अशुद्ध पानी को शुद्ध करने आदि विषयों का विधान भी निरूपित है ।
१६वीं शताब्दी के अन्य जैन काव्य लेखकों में 'विजयकुमारिकथे' के रचयिता श्रुतकीर्ति, 'चन्द्रप्रभषट्पदि' के रचयिता दोड्डुणांक, शृंगारप्रधान 'सुकुमारचरिते' के रचयिता पद्मरस और 'वज्रकुमारचरित' के रचयिता ब्रह्म कवि प्रमुख हैं । ई० सन् १६०० में देवोत्तम ने 'नानार्थरत्नाकर' नाम से और शृंगार कवि ने 'कर्णाटकसजीवन' नाम से दो निघंटुओं की भी रचना की है । कवि शांतरस ने योगशास्त्रविषयक 'योगरत्नाकर' नामक एक सुंदर योगशास्त्र भी लिखा है ।
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सम्भवतः १७वीं शताब्दी के बाद जैन कवि रचना से सर्वथा विमुख हो गये । संख्या में ही नहीं, सारस्वत सम्पदा में भी यह काल जैनों की अवनति का काल है । इस काल में जैन कवियों की संख्या केवल २५-३० ही रही । इनमें भी साहित्य की दृष्टि से उल्लेखनीय कवि केवल ५-६ ही हैं । उल्लेखाई कतिपय कवियों का परिचय निम्न प्रकार है :
भट्टाकलंक
इन्होंने 'कर्णाटकशब्दानुशासन' की रचना की है । इनका समय ई० सन् १६०४ है | कवि देवचन्द्र ने इनकी बड़ी प्रशंसा की है । कतिपय शिलालेखों में भी इनकी बड़ी प्रशंसा की गयी है । इसमें संदेह नहीं है कि भट्टाकलंक सचमुच इस प्रशंसा के पात्र हैं । यह प्रसिद्ध वैयाकरण नागवर्म ( द्वतीय ) और केशिराज से बढ़कर हैं । वस्तुतः भट्टाकलंक महावैयाकरण थे । इन्होंने केवल ५६२ सूत्रों में ही भाषा विषयक समस्त विषयों को भर दिये हैं । उल्लेखनीय यह है. कि भट्टाकलंक ने कन्नड व्याकरण को संस्कृत में लिखा है । इतना ही नहीं,
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