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जैन पादपूर्ति - साहित्य :
उक्त दूतकाव्यों के परिशीलन से हमें ज्ञात होता है कि पार्श्वभ्युदय, शोलदूत, नेमिदूत, चन्द्रदूत एवं मेघदूतसमस्यालेख आदि पादपूर्ति या समस्यापूर्ति काव्यविधा के अन्तर्गत ही आते हैं । इस काव्यविधा को जैन कवियों ने विकसित करने में बड़ा योगदान दिया है, यही कारण है कि जैन काव्यों में अनेकविघ एवं बहुसंख्यक पादपूर्तिकाव्य उपलब्ध होते हैं । संभवतः जैनेतर साहित्यमें ऐसे काव्य बहुत ही कम हैं ।
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
पादपूर्तिकाव्य की रचना करना कोई सामान्य काम नहीं । इस विशिष्ट कार्य में मूलकाव्य के मर्म को हृदयङ्गम करने के साथ-साथ रचयिता में उत्कृष्ट कवित्वशक्ति, असाधारण पाण्डित्य, भाषा पर पूर्ण अधिकार एवं नवीन अर्थों को उद्भावन करने वाली प्रतिभा की परम आवश्यकता होती है । वह इसलिए भी कि दूसरे की पदावलियों को उनके भाव, अर्थ एवं लालित्य के गुणों के साथ अपने ढांचे में ढालना अति दुष्कर एवं उलझनों से भरा कार्य है और उसमें सफलता के लिए उपर्युक्त गुण होना बहुत जरूरी है। जो कवि मूल पदों के भावों के साथ अपने भावों का जितना अधिक सुन्दर सम्मिश्रण कर सकता है और ऐसे कार्य. में सहज प्राप्त होने वाली क्लिष्टता और नीरसता से अपने काव्य को बचा सकता है वह कवि उतनी ही अधिक मात्रा में सफल कहलाने का गौरव प्राप्त कर सकता है । जिस पादपूर्तिकाव्य को पढ़ते समय काव्यमर्मज्ञ भी पादपूर्ति का भान न कर मौलिक उत्कृष्ट काव्य का रसास्वादन करने लगे वहां ही कवि की सफलता है ।
जैन कवियों में पादपूर्तिकाव्य के निर्माण की सूझ कब से आई, यह कह नहीं सकते पर इस दिशा में सर्वप्रथम जिनसेनाचार्य का पार्श्वभ्युदय ई० ९वीं शताब्दी का है। इसका वर्णन हम पहले कर आये हैं। उसके बाद १५वीं शताब्दी के पहले का ऐसा कोई काव्य उपलब्ध नहीं है । १५-१७वीं शताब्दी में इन काव्यों में उत्तरोत्तर वृद्धि हुई है और १८वीं शताब्दी में तो इसका पूरा विकास हुआ मालूम होता है । २०वीं शताब्दी में पादपूर्तिकाव्य केवल गुरुस्तुतिपरक रचे गये हैं ।
जैन पादपूर्तिकाव्यों को हम सुविधा की दृष्टि से निम्न प्रकार से विभक्त कर सकते हैं :
१. मेत्रदूत की पादपूर्ति के काव्य : इनका विवरण हम दूतकाव्यों में प्रस्तुतः कर चुके हैं।
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