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ललित वाङ्मय
वदत्ता में श्लेष तथा अन्य अलंकारों की भरमार से उसके सौन्दर्य का घात ही हुआ जबकि गद्यचिन्तामणि में परिमित और सारगर्भित अलंकारों के प्रयोग के कारण इस काव्य की शोभा ही बढ़ी है। बाण की कादम्बरी जिस किसी वर्णन में विशेषणों की भरमार से इतनी उलझी हुई है कि पाठक उसके रमास्वादन से वंचित-सा रह जाता है, वह एक प्रकार से जंगल में फंस जाता है, पर गद्यचिन्तामणि इस दोष से मुक्त है। इस काव्य में पदलालित्य, श्रवणीय शब्दविन्यास, स्वच्छन्द वचनविस्तार के साथ सुगम रीति से कथाबोध हो जाता है । कवि ने इस काव्य के भाषाप्रवाह को उतना ही प्रवाहित किया है जिससे रसवृक्ष सींचा तो गया है परन्तु डुबाया नहीं गया है। दण्डी के दशकुमारचरित में आदि में ही इतनी घटनाओं का अवतारण हुआ है कि पाठक के लिए उनका अवधारण कठिन है । भाषा का प्रवाह एवं पदलालित्य भी प्रारम्भ में जितना प्रदर्शित हुआ है वह उत्तरोत्तर क्षीण ही होता गया है और अंत में कथानक का अस्थिपंजर ही दिखाई देता है परन्तु गद्यचिन्तामणि में ऐसी बात नहीं है। इसमें भाषा का प्रवाह आदि से अन्त तक अजस्र प्रवाहित है।
इम काव्यग्रन्थ के प्रथम सम्पादक स्वर्गीय पं० कुप्पुस्वामी ने इसकी विशिष्टताओं को इन पंक्तियों में प्रकट किया है :
"अस्य काव्यपथे पदानां लालित्यं,श्राव्यः शब्दसंनिवेशः, निरर्गला वाग्वैखरी, सुगमः कथासारावगमश्चित्त-विस्मापिका कल्पनाश्चेतः प्रसादजनको धर्मोपदेशो, धर्माविरुद्धा नीतयो, दुष्कर्मणो विषयफलावाप्तिरिति विलसन्ति विशिष्टगुणाः।"
अर्थात् इस काव्य में पदों की सुन्दरता, श्रवणीय शब्दों की रचना, अप्रतिहत वाणी, सरल कथासार, चित्त को आश्चर्य में डालने वाली कल्पनाएं, हृदय में प्रसन्नता उत्पन्न करने वाला धर्मोपदेश, धर्म से अविरुद्ध नीतियाँ और दुष्कर्म के फल की प्राप्ति आदि विशिष्ट गुण सुशोभित हैं।
इस काव्य में तत्कालीन सांस्कृतिक चित्रण, नाना प्रकार के वाद्य, वस्त्र, भोजनगृहवर्णन, आकाश में उड़ने के यंत्र. कन्दुक-क्रीड़ा आदि का बड़ा मनोहारी १. इस काव्य की अन्य विशेषताओं के लिए गुरु गोपालदास बरैया स्मृति
ग्रन्थ, पृ. ४७४-४८३ में प्रकाशित पं. पन्नालाल साहित्याचार्य का
लेख 'गद्यचिन्तामणि परिशीलन' देखें । .२. गद्यचिन्तामणि, श्रीरंगम्, प्रस्तावना, पृ. ९.
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