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________________ जैन साहित्य का बृहद् इतिहास है । कवि ने १० पद्यों की प्रशस्ति द्वारा भी ग्रन्थ के अन्त में अपना परिचय दिया है कि श्रीसम्पन्न बड़ी भारी महिमा वाला और सारे जगत् का अवतंस - रूप नोमकों का वंश है जिसके हस्तावलम्बन से राज्यलक्ष्मी वृद्ध होने पर भी दुर्गपथ से स्खलित नहीं हुई । कायस्थ कुल में आर्द्रदेव नाम के पुरुषरत्न हुए जिनकी पत्नी का नाम रथ्या था तथा उनसे हरिचन्द्र नाम का पुत्र हुआ जो अरहंत भगवान् के चरणकमलों का भ्रमर था और जिसकी वाणी सारस्वत स्रोत में निर्मल हो गई थी । अपने भाई लक्ष्मण की भक्ति और शक्ति से हरिचन्द्र उसी तरह निर्व्याकुल होकर शास्त्रसमुद्र के पार हो गये जिस तरह राम लक्ष्मण के द्वारा सेतु पार हुए थे । ' प्रशस्ति से यह ज्ञात होता है कि कवि एक राज्यमान्य कुल के थे और यह राज्यमान्यता उनके यहाँ पीढ़ी से चली आ रही थी । कवि ने माता-पिता, अपने नाम और अनुज के नाम के अतिरिक्त अपने वंश का तथा अपने पूर्वज गुरुओं और आचार्यों का कोई परिचय नहीं दिया । वे कहाँ के रहनेवाले थे यह भी उक्त प्रशस्ति से ज्ञात नहीं होता । कवि किस सम्प्रदाय के थे यह भी उनकी प्रशस्ति से नहीं मालूम होता पर ग्रन्थ के अन्तवक्षण से यह स्पष्ट है कि वे दिगम्बर मत के अनुरागी थे। उन्होंने इस काव्य की कथा उत्तरपुराण से ली थी, धर्मदेशना के प्रसंग में उन्होंने चन्द्रप्रभचरित की शैली का अनुसरण किया है, नेमिनिर्वाण काव्य के अनेक पद्यों से भी इस काव्य के अनेक पद्य मिलते हैं, तथा पाँचवे सर्ग में दिगम्बरमान्य १६ स्वप्नों का वर्णन है, तीसरे सर्ग के ८वें श्लोक में दिगम्बर साधु का समागम आदि इनके दिगम्बर मतानुयायी होने के सूचक हैं। पर वे कट्टर दिगम्बर न थे । उन्होंने श्वेताम्बर ग्रन्थों का तथा जैनेतर ग्रन्थों का भी अध्ययन किया था । अन्तिम ( २१वें ) सर्ग में जिन खरकर्मों का उल्लेख है वे हेमचन्द्र के योगशास्त्र पर अवलम्बित हैं । ४९० कवि का अध्ययन विशाल था । उसने अपनी कृति के निर्माण में तत्त्वार्थसूत्र, आदिपुराण, उत्तरपुराण, यशस्तिलकचम्पू, गद्यचिन्तामणि, चन्द्रप्रभचरित, १. प्रशस्ति, पद्य १-५. २. दिगम्बरपदप्रान्तं राजापि सहकान्तया. ३. ( १ ) ध० श०, सर्ग २१, श्लोक १३१ = यो० शा०, पृ० १६६. (२) ध० श०, सर्ग २१, श्लोक १३६ = यो० शा०, तृ० प्र०, पृ० ४९३.. सर्ग २१, श्लोक १४५ = यो० शा०, तृ० प्र०, पृ० ५६०.. सर्ग २१, श्लोक १४६ = यो० शा०, तृ० प्र०, पृ० ५६९. (३) ध० श०, (४) ध० श०, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002099
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Literature, Kavya, & Story
File Size11 MB
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