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ललित वाङ्मय
४८३ शरीर छोड़कर अहमिन्द्र होना आदि वर्णन (१५ सर्ग), पूर्व देश की चन्द्रपुरी नगरी में महाराजा महासेन और महारानी लक्ष्मणा से पुत्ररूप में गर्भग्रहण (१६ सर्ग), चन्द्रप्रभ जिन की उत्पत्ति, जन्मकल्याणक, बालक्रीड़ा, विवाह, साम्राज्यलाभ, संसार की असारता, तपग्रहण आदि (१७ सर्ग) जैन सिद्धान्तों का संक्षेप में वर्णन दिया गया है।
काव्य की वर्ण्य-वस्तु को देखने से लगता है कि इसमें महाकाव्योचित सभी गुणों का समावेश किया गया है। इस काव्य में प्रसङ्गतः अन्य रसों का प्रयोग हुआ है पर शान्तरस को मुख्यता प्रदान की गई है। शेष रस अंग बनकर रह गये हैं, अंगी नहीं बन सके ।
ग्रन्थकार एवं रचनाकाल-प्रस्तुत कृति के रचयिता आचार्य वीरनन्दि हैं जिनकी यही एकमात्र कृति उपलब्ध है। इनकी गुरुपरम्परा ग्रन्थ के पीछे प्रशस्ति में दी है। इससे ज्ञात होता है कि आचारसार के कर्ता वीरनन्दि जिनके गुरु मेघनन्दि थे तथा महेन्द्रकीर्ति के शिष्य एक अन्य वीरनन्दि इनसे भिन्न थे। ___ इस काव्य की प्रशस्ति में वीरनन्दि के गुरु का नाम अभयनन्दि दिया गया है जिनके गुरु विबुधगुणनन्दि थे। विबुधगुणनन्दि के गुरु का नाम गुणनन्दि था। ये देशीयगण के आचार्य थे।
प्रशस्ति में लिखा है कि वीरनन्दि ने अपने बुद्धिबल से समस्त वाङ्मय को आत्मसात् कर लिया था-वे सर्वतन्त्र स्वतन्त्र थे। सज्जनों की सभाओं में कुतर्को के लिए अंकुश के समान उनके वचन सदा विजयी थे, इस कारण उनका यश भी खूब था।
१. डा० नेमिचन्द्र शास्त्री, संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योग
दान, पृ० ८१ प्रभृति. बभूव भव्याम्बुजपनबन्धुः पतिर्मुनीनां गणभृत्समानः । सदग्रणीर्देशगणाग्रगण्यो गुणाकरः श्रीगुणनन्दिनामा ॥१॥ गुणग्रामाम्भोधेः सुकृतवसतेर्मित्रमहसा
___ मसाध्यं यस्यासीन किमपि महीशासितुरिव । स तच्छिष्यो ज्येष्ठः शिशिरकरसौम्यः समभव
स्पविख्यातो नाम्ना विबुधगुणनन्दीति भुवने ॥२॥ मुनिजननुतपादः प्रास्तमिथ्याप्रवादः
सकलगुणसमृदस्तस्य शिष्यः प्रसिदः ।
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