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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास गुर्जरनरेश सिद्धराज जयसिंह के नाम के साथ प्रबन्धों तथा लेखों में सिद्धचक्रवर्ती, त्रिभुवनगंड, अवन्तीनाथ आदि विरुद लगे मिलते हैं। ये विशेषण क्यों लगे और इनका क्रम क्या है इसकी विगत ग्रन्थों में मिलती नहीं । शिलालेख और ताम्रपत्र भी इसे बताने में असमर्थ हैं। परन्तु इनका प्रामाणिक आधार इन पुष्पिका-लेखों में मिलता है ।
___ सं० ११५७ में लिखी निशीथचूर्णि पुस्तक' में लिपिकार ने लिपिबद्ध करने का समय निर्देश करते हुए 'श्रीजयसिंहदेवराज्ये' ऐसा सामान्य उल्लेख किया है। इतिहास से हम जानते हैं कि उस समय जयसिंह नाबालिग था और उसका राज्यकार्य उसकी माता मीनलदेवी चलाती थी। उस समय उसके पराक्रम का प्रारम्भ न हुआ था। सं० ११६४ में लिखी 'जीवसमासवृत्ति की पुष्पिका में उक्त नरेश को 'समस्तराजावली विराजित महाराजाधिराज परमेश्वर श्री जयसिंह देव' विरुदों से युक्त लिखा गया है। इससे ज्ञात होता है कि उस समय वह राजतंत्र को स्वतंत्रतापूर्वक चला रहा था। सं० ११६६ में लिखी 'आवश्यकसूत्र ३ की पुष्पिका में उस नरेश के महाराजाधिराज के साथ 'त्रैलोक्यगण्ड' विशेषण प्रयुक्त हुआ है। यह उस राजा के 'बर्वर' नामक नृप को जीतने के पराक्रम का सूचक है। संवत् ११७९ में लिखी 'पंचवास्तुक" ग्रन्थ की पुष्पिका से मालूम होता है कि उसका महामात्य शान्तुक था और उसके बाद की उसी वर्ष की 'उत्तराध्ययनसूत्र" की पुष्पिका में जयसिंह का विरुद सिद्धचक्रवर्ती दिया है और महामात्य का नाम आशुक दिया गया है। लगता है उस समय शान्तुक ने अवकाश ग्रहण कर लिया था।
इसी तरह गुजरात के अन्य नृपों के इतिहास-निर्माण में पुष्पिकालेखों का प्रयोग उपयोगी सिद्ध हुआ है।
१. जैनपुस्तकप्रशस्तिसंग्रह (सिंघी जैन ग्रन्थमाला, क्रमांक १८), पृ० ९९. २. वही, पृ० १००. ३. वही. ४. वही, पृ० ६५.
वही, पृ० १०१; हमने अपने ग्रन्थ 'पोलिटिकल हिस्ट्री ऑफ नोर्दन इण्डिया' में इस प्रकार की अन्य पुष्पिकाओं का उपयोग कर इतिहास निर्माण किया है।
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