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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
आगरा दरबार आने का निमन्त्रण दिया । आचार्य गुजरात से पैदल चलकर आगरा आये । सम्राट् ने उनका बहुत सम्मान किया और अनेक भेंट की । उनके अनुरोध पर उसने पर्यूषणपर्व में १२ दिन तक जीव हत्या रोक दी आदि । जून सन् १५८४ में उसने हीरविजयजी को 'जगद्गुरु' की उपाधि दी और उनके शिष्य शान्तिचन्द्र को उपाध्याय पद । हीरविजय सन् १५८२ से १५८६ तक आगरा रहे । अकबर और हीरविजयजी के सम्बन्धों का वर्णन पद्मसागरकृत 'जगद्गुरुकाव्य' और देवविमलकृत 'हीरसौभाग्यकाव्य' में मिलता है । वैराट ( जयपुर --- सन् १५८७ ) तथा शत्रुंजय (सन् १५९३ ) से प्राप्त शिलालेखों से भी इस बात की पुष्टि होती है ।
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उपाध्याय शान्तिचन्द्र ने बादशाह के दयामय कार्यों के वर्णन के लिए 'कृपारसकोश' बनाया । उसके अहिंसा कार्यों का वर्णन अलबदाउनी ने भी किया है । विन्सेण्ट स्मिथ ने अपने ग्रन्थ 'अकबर' में भी इन बातों का प्रतिपादन किया है । उपाध्याय शान्तिचन्द्र का अकबर पर बड़ा प्रभाव था । एक वर्ष ईद के समय सम्राट के पास ही थे। ईद से एक दिन पहले उन्होंने सम्राट से कहा कि अब वे वहाँ नहीं ठहरेंगे क्योंकि अगले दिन ईद के उपलक्ष्य में अनेक पशु मारे जायेंगे। उन्होंने कुरान की आयतों से सिद्ध कर दिखाया कि कुर्बानी का मांस और खून खुदा को नहीं पहुँचता, वह इस हिंसा से खुश नहीं होता बल्कि परहेजगारी से खुश होता है। रोटी और शाक खाने से ही रोजे कबूल हो जाते हैं । अन्य अनेक मुसलमान ग्रन्थों से भी उन्होंने बादशाह और उसके दरबारियों के समक्ष यह सिद्ध किया और बादशाह से घोषणा करा दी कि इस ईद पर किसी प्रकार का वध न किया जाय ।
शान्तिचन्द्र आवश्यक कार्य से गुजरात चले गये और अपने शिष्य भानुचन्द्र को अकबर के दरबार में छोड़ गये ।
बड़ा
भानुचन्द्र का अकबर के शेष जीवन और जहाँगीर के प्रारम्भिक जीवन से सम्पर्क था । अकबर ने अपने दो शाहजादे सलीम और दर्रेदानियाल की शिक्षा भानुचन्द्रगणि के अधीन की थी। अबुलफजल को भी भानुचन्द्र ने भारतीय दर्शन पढ़ाया था । भानुचन्द्र ने सम्राट के लिए 'सूर्यसहस्रनाम' की रचना की और इसी कारण वे 'पातशाह अकबर जलालुद्दीन सूर्यसहस्रनामाध्यापक ' कहलाते थे । वे फारसी के भी बड़े विद्वान् थे । बादशाह ने खुश होकर उन्हें 'खुशफहम' उपाधि प्रदान की थी। अकबर भानुचन्द्रगणि के प्रति अत्यन्त आस्थावान् था । इसके समर्थन में बहुत सामग्री है। उनमें से दो मात्र का
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