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________________ ऐतिहासिक साहित्य ३९५ वैयक्तिक कारणों से अलग कर दिये गये हों। यह भी सम्भव है कि मूलतः यह इतना ही हो क्योंकि दूसरी द्वात्रिंशिकाओं में भी पद्मों की संख्या अनियमित है। उदाहरणतः जबकि २१वीं में ३३, १०वीं में ३४ पद्य हैं तो ८वीं में २६ और १५वीं और १९वीं में ३१ पद्य हैं । जबकि अन्य द्वात्रिंशिकाओं का विषय या तो तीर्थंकरों की स्तुति या जैनसिद्धान्त के विवेचन के रूप में है, तो इसका विषय निम्नप्रकार है : उस राजा के सम्बन्ध में कवि उच्चकोटि की विरुदावली के रूप में कहता है कि तुम कीर्ति में अपने पूर्वजों से बहुत आगे हो (१)। तुम जगत् भर में महिमाशाली हो (२)। तुम्हारी कीर्ति दसों दिशाओं में फैल रही है ( ३)। तुम्हारे गुणों ने तुम्हारी कीर्ति को वनप्रदेशों में भी फैला दिया है (४)। तुमने दूसरों के प्रताप को ढंक दिया है (५)। तुम्हारे अनुग्रह-स्वभाव ने तुम्हारी कीर्ति बढ़ा दी है (६)। तुम्हारे गुण दिव्य हैं (७)। संसार में ऐसी कोई जगह नहीं जहाँ तुम्हारी कीर्ति न पहुँची हो (८)। राज्यश्री तुम्हारे वक्षःस्थल पर क्रीड़ा करती है (९)। तुम बुद्धयादि गुणों से दिव्य हो (१०)। तुम अपने दान ( अनुग्रह ) प्रकृति से प्रवीर शत्रुओं को वश में कर लेते हो (११)। वसुधा बहुत काल बाद तुम्हारे एकच्छत्र राज्य में आई है, शेष नृप तुम्हारे आज्ञापालक हैं (१२)। तुम क्रोध से शत्रुओं को उखाड़ फेंकते हो और पराजित शत्रुओं पर कृपाकर शतगुणो राज्यलक्ष्मी देते हो ( १३-१४ )। तुम मान के सिवाय दूसरे गुग को पसन्द नहीं करते अर्थात् मान पर तुम्हारा एकाधिकार है और यदि वह गुण दूसरों में चला गया तो वे निर्मूल कर दिये जाते हैं (१५)। तुम्हारी आज्ञा का उल्लंघन कर ही शत्रु यश पा सकते हैं पर उनमें हिम्मत कहाँ (१६)। शरद् ऋतु तुम्हारे शत्रुओं को अरोचक है क्योंकि वह तुम्हारी दिग्विजय का समय है (१७)। एक समय संयोग से तुम्हारी तलवार ने तुम्हारे वक्षःस्थल पर क्षतकर राज्यलक्ष्मी को स्थिर कर दिया था ( १८)। तुम्हारे अधीन चंचला लक्ष्मी और पृथ्वी परस्पर स्पर्धा से बढ़ रही हैं ( १९)। तुम्हारे साथ वृद्धा ( बहुत काल से रहनेवाली ) लक्ष्मी का यौवनगुण बदला नहीं (२०)। तुम्हारे मनुष्यरूप में हरि ( देवराज) होने का विषय तब तक रहस्य बना रहा जब तक प्रान्तपतिरूपी मेघों ने जनकल्याणकारिणी योजनाओं द्वारा उसे प्रकट नहीं किया (२१)। तुम यथार्थ में महीपाल हो जो खिन्न पृथ्वी को वक्षःस्थल से धारण करते हो। जब तुम गर्भ में थे तभी पृथ्वी ने नूतन युग आने के संकेत कर दिये थे (२२)। विरुद्ध गुण भी तुममें ही निर्विरोध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002099
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Literature, Kavya, & Story
File Size11 MB
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