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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास (सिंहसेन ) ने सं० १२१३ में प्रतिष्ठा कराई थी। इस आधार पर सिद्धसेन के प्रशिष्य वीरदेवगणि का समय तेरहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध आता है ।
दूसरी दो रचनाएँ संस्कृत के काव्यरूप में मिली हैं। एक के रचयिता चारित्रसुन्दरगणि हैं जो बृहत्तपागच्छ में रत्नाकर सूरि की परम्परा में अभयसिंहसूरि-जयतिलक-रत्नसिंह के शिष्य थे। विण्टरनित्स ने इसमें १४ सर्ग होने लिखे हैं। जिनरत्नकोश में इसका ग्रन्थाग्र ८९५ श्लोक-प्रमाण बतलाया गया है। चारित्रसुन्दर ने इस काव्य की रचना कब की यह निश्चित नहीं मालूम होता परन्तु वे १५वीं के अन्त तथा १६वीं शताब्दी के प्रारम्भ में विद्यमान थे। उन्होंने शुभचन्द्रगणि के अनुरोध पर दशसर्गात्मक कुमारपालचरित काव्य की रचना २०३२ श्लोकों में सं० १४८७ में की थी और सं० १४८४ या ८७ में शीलदूतकाव्य और पीछे आचारोपदेश की रचना की थी। उन्होंने कुछ प्रतिष्ठाएँ सं० १५२३ तक कराई थीं।
दूसरी संस्कृत कृति में पाँच सर्ग हैं और उसे तपागच्छ के रत्ननन्दि के शिष्य चारित्रभूषण ने रचा है। अपनी गुरुपरम्परा को विजयचन्द्र से प्रारम्भ कर रत्नाकरसूरि की परम्परा में अभयनन्दि-जयकीर्ति--रत्ननन्दि के नाम दिये हैं । पर अभयनन्दि आदि नाम उक्त गच्छ की परम्परा में नहीं मिलते हैं। उनके स्थान में अभयसिंह, जयतिलक और रत्नसिंह मिलते हैं। चारित्रभूषण की जगह चारित्रसुन्दर की कुछ कृतियाँ मिलती हैं। संभवतः चारित्रभूषण और उनकी गुरुपरम्परा नाम भिन्न होने से पृथक रही हो। यह भी संभावना है कि चारित्रभूषण और चारित्रसुन्दर एक ही हो । मुग्धकथाएँ:
भरटकद्वात्रिंशिका-इसमें ३२ कथाओं का संग्रह है। यह मुग्ध ( मूर्ख,
१. पट्टावलीसमुच्चय, पृ. २०५. २. जिनरत्नकोश, पृ० ३०८; हीरालाल हंसराज, जामनगर, १९०९ और १९१७. ३. वही; इस काव्य की पाण्डुलिपि जैन सिद्धान्त भवन आरा में (झ। १३२)
२४ पत्रों में है; विशेष परिचय के लिए देखें-डा० नेमिचन्द्र शास्त्री,
संस्कृत काव्य के विकास में जैन कवियों का योगदान, पृ० ४६७-४७१. ४. जिनरत्नकोश, पृ० २६२, जे० हर्टल द्वारा सम्पादित, लाइजिग, १९२१,
हर्टल का मत है कि इस द्वात्रिंशिका का लेखक गुजरातनिवासी कोई जैन विद्वान होना चाहिए। ऐसी कथाएँ ४९२ ई० पूर्व में भी मौजूद थीं।
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