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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास जैन कवियों की रचनाएँ मिलती हैं। ये दोनों प्रसंग एक प्रकार की परीकथाएँ हैं।
वेतालपञ्चविंशिका-विक्रमादित्य के चमत्कारी जीवनवृत्त के साथ वेताल की पच्चीस कथाएँ बहुत प्राचीन काल से जुड़ी आ रही हैं। उक्त कथाओं पर एक जैन रचना भी मिली है जिसके रचयिता तपागच्छीय कुशलप्रमोद के प्रशिष्य एवं विवेकप्रमोद के शिष्य सिंहप्रमोद हैं।' इसकी रचना सं० १६०२ में हुई थी। इसकी प्राचीनतम प्रति सं० १६२० की मिला है ।
सिंहासनद्वात्रिंशिका-ग्रन्थान ११०० प्रमाण इस संस्कृत काव्य की रचना तपागच्छीय देवसुन्दरसूरि के शिष्य क्षेमंकरगणि ने की थी। इसका रचनासंवत् तो ज्ञात नहीं पर कोई प्राचीनतम प्रति सं० १४७८ की तथा दूसरी सं० १५१४ की मिली है।
दूसरी रचना संस्कृत गद्य में है। इसके रचयिता समयसुन्दर हैं । इसकी प्राचीन प्रति सं० १७२४ की मिली है । ३
सिद्धसेन दिवाकर नाम से कल्पित एक उक्त नाम की कृति का उल्लेख मिलता है और इसी तरह एक अज्ञातकर्तृक का भी ।'
देवमूर्तिकृत विक्रमचरित्र के चौदहवें सर्ग में ११४० पद्यों में सिंहासनद्वात्रिंशिका की कथा दी गई है। इसका ग्रन्थान जिनरत्नकोश में ६२६६ दिया गया है जो ठीक नहीं है क्योंकि सम्पूर्ण विक्रमचरित का ही ग्रन्थान ५३०० बतलाया गया है।
विक्रमादित्य के समान ही प्रत्येकबुद्ध अम्बड के साथ भी अनेक चमत्कारी कथाओं के जाल जैन कवियों ने बनाकर कई अम्बडचरितों की रचना की है।
१. जिनरत्नकोश, पृ० ३६५. २. वही, पृ० ४३६. ३. वही. ४. वही. ५. सिंहासनद्वात्रिंशिका के जैन रूपान्तरों का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए
और जेनेतर रूपों से अन्तर बतलाते हुए अमेरिकन विद्वान् फ्रेंकलिन एडगरटन ने 'विक्रम्स एडवेंचर्स' नामक बृहद् ग्रन्थ का प्रणयन किया है-हारवर्ड ओ० सिरीज, २६.
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