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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
इनमें सबसे प्राचीन नाणपञ्चमीकहाओ' नामक ग्रन्थ है जिसमें दस कथाएँ संकलित की गई हैं, वे हैं : जयसेणकहा, नन्दकहा, भद्दाकहा, वीरकहा, कमलाकहा, गुणाणुरागकहा, विमलकहा, धरणकहा, देवीकहा और भविस्सयत्तकहा । समस्त रचना में २८०४ गाथाएँ हैं । इसकी भविस्सयत्त कहा के कथा- बीज को लेकर धनपाल ने अपभ्रंश में भवित्सयत्त कहा या सूयपञ्चमीकहा नामक महत्वपूर्ण काव्य लिखा है, और उसका संस्कृत रूपान्तर मेत्रविजयगणि ने भविष्यदत्तचरित्र नाम से प्रस्तुत किया है। इसके रचयिता सजन उपाध्याय के शिष्य महेश्वरसूरि हैं । इनके विषय में विशेष कुछ नहीं मालूम है । इस कृति की सबसे पुरानी ताडपत्रीय प्रति वि० सं० ११०९ की पाटन के संघवी भण्डार से मिली है । इससे अनुमान है कि यह इससे पूर्व की रचना है। महेश्वरसूरि को ही भूल से महेन्द्रसूरि लिखकर उक्तकतृ के भविष्यदत्तकथा की भविष्यदत्ताख्यान नाम से कुछ प्रतियाँ भी मिलती हैं ।
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तेरहवीं - चौदहवीं सदी में इस कथा के विषय में संस्कृत - प्राकृत में सम्भवतः कोई रचना नहीं की गई ।
पन्द्रहवीं सदी में श्रीधर नामक दिगम्बर विद्वान् ने संस्कृत में भविष्यदत्तचरित्र' की रचना की जिसकी हस्तलिखित प्रति सं० १४८६ की मिली है, इससे यह रचना अवश्य इस काल से पूर्व हुई है। सत्तरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में उपाध्याय पद्मसुन्दर ने भी एक भविष्यदत्तचरित' की रचना कार्तिक सुदी ५ सं० १६१४ में की थी । इसी शताब्दी के उत्तरार्ध में तपागच्छीय कनककुशल ने कार्तिक शुक्ल पञ्चमी के दिन ज्ञानश्रुत का माहात्म्य सूचित करने के लिए एक कोढ़ी वरदत्त और गूंगी गुणमंजरी की कथा बड़े रोचक रूप में निबद्ध की है जिसे वरदत्तगुणमंजरीकथा, गुणमंजरीकथा, सौभाग्यपंचमीकथा, ज्ञानपंचमीकथा और कार्तिकशुक्ल पंचमीमाहात्म्यकथा नाम से कहा गया । कुछ विद्वान् इन विभिन्न नामों से विभिन्न कृतियाँ मान बैठे हैं पर यह भ्रम है । कनककुशल की यह कृति १५२ श्लोकों में है और सं० १६५५ में
१. सिंघी जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक २५, भारतीय विद्याभवन, बम्बई, सं० २००५.
२. अनेकान्त, जून १९४१, पृ० ३५०.
ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन में सं० १६१५ की हस्तलिखित प्रति; जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ३९६.
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