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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास चित्रसेन-पद्मावतीचरित-इसे पद्मावतीचरित्र तथा शीलालंकारकथा भी कहते हैं । इसमें स्वदार-सन्तोषव्रत के माहात्म्य को प्रकट करने के लिए चित्रसेन और पद्मावती की कथा कही गई है।
कथावस्तु-राजपुत्र चित्रसेन और मंत्रीपुत्र रत्नसार मित्र थे। दोनों की सुन्दरता से नगर की युवतियाँ आकर्षित होने लगीं। लोगों ने शिकायत की। राजा ने झक में आकर सात रत्न देकर राजकुमार से राज्य छोड़ देने को कहा। राजकुमार मित्र के साथ चल देता है। भटकते हुए जङ्गल में वह एक युवतो का चित्र देख मूञ्छित हो जाता है। होश आने पर वह और उसका मित्र एक केवली से पूछते हैं और मालूम करते हैं कि यह चित्र पद्मावती का है। पूर्व जन्म में चित्रसेन और पद्मावती हंसयुगल थे और दोनों इस भव में जन्मे हैं। चित्रसेन और उसका मित्र पद्मावती की खोज में रत्नपुर जाते हैं। वहाँ चित्रसेन ने पूर्वजन्म का चित्र बनाकर प्रदर्शित किया । पद्मावती उस चित्र को देख मूञ्छित हो गई। स्वयंवर द्वारा उनका विवाह हुआ। लौटते समय एक वटवृक्ष पर बैठे यक्ष-यक्षी की बात सुनकर रत्नसार ने चित्रसेन पद्मावती को अनेक दुर्घटनाओं से बचाया और अन्तिम घटना में रत्नसार को पाषाण के रूप में परिवर्तित हो जाना पड़ा। चित्रसेन बड़ा दुःखी हुआ और यक्ष से उसके त्राण का उपाय पूछा । पद्मावती ने अपने पुत्र होने पर उसे गोद में लेकर अपने हाथ से रत्नसार की पाषाण प्रतिमा को ज्यों स्पर्श किया कि वह सजीव हो गया। इसके बाद चित्रसेन के साहसिक कार्यों का वर्णन है। पीछे चित्रसेन और पद्मावती ने श्रावक के १२ व्रत ले लिये
और यात्राएँ की। ___इस कथा को लेकर अनेकों रचनाएँ लिखी गई हैं। सर्वप्रथम धर्मघोषगच्छ के महीचन्द्रसूरि के शिष्य पाठक राजवल्लम ने ५११ संस्कृत श्लोकों में इसकी रचना सं० १५२४ में की है। यह कथा उन्होंने अपनी षडावश्यकबृत्ति में भी संक्षेप में २०० श्लोकों में दी है और लिखा है कि यह कथा शीलतरङ्गिणी से ली गई है।
दूसरी रचना सं० १६४९ में देवचन्द्र के शिष्य कल्याणचन्द्र ने की थी। तीसरी रचना सं० १६६० में बुद्धिविजय ने देशी भाषा से मिश्रित
१. जिनरत्नकोश, पृ० १२३ और २३५; हीरालाल हंसराज, जामनगर, १९२४. २. वही, पृ० १२३.
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