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कथा-साहित्य
पाँचों पात्रों में से केवल दो पात्र कुवलयचन्द्र और कुवलयमाला ही इस कथा के मुख्य पात्र बताये गये हैं। उन्हें ही कथा के नायक-नायिका बनाकर शेष पात्रों की कथाएँ उनकी कथा से बाँधकर सारी कथा को अत्यन्त रोचक बनाने का प्रयत्न किया गया है।
यह कथा-ग्रन्थ घटना-वैचित्र्य और उपाख्यानों की प्रचुरता में वसुदेवहिंडी के समान है। अपनी प्रौढ शैली और अलंकार-समृद्धि में सुबंधु की वासवदत्ता और बाणभट्ट की कादम्बरी की तुलना करती है। इस पर हरिभद्र की समराइच्चकहा और त्रिविक्रम के नलचम्पू का प्रभाव परिलक्षित होता है।
इस कथा-ग्रन्थ में बहुविध सांस्कृतिक सामग्री बिखरी पड़ी है। मठों में रहनेवाले विद्यार्थियों और वाणिज्य व्यापार के लिए दूर-दूर भ्रमण करनेवाले वणिकों की बोलियों का इसमें संग्रह है। इसमें समुद्र-यात्रा का वर्णन है, मठों में दी जानेवाली शिक्षा तथा शास्त्रों का वर्णन है, १८ देशी बोलियों का देशों के साथ समुल्लेख है, उत्सव, विवाह-वर्णन तथा प्रहेलिकाओं आदि का वर्णन दिया गया है।
ग्रन्थ के आदि में रचयिता ने अपने पूर्ववर्ती अनेकों कवियों और आचार्यों का उनकी कृतियों के साथ उल्लेख किया है।
ग्रन्थकार एवं रचनाकाल-इसके रचयिता का नाम दाक्षिण्यचिह्न उद्योतनसूरि है। कथा के अन्त में लेखक ने एक २७ पद्यों की प्रशस्ति दी है। जिसमें गुरुपरम्परा, रचनासमय और स्थान का निदश किया गया है। इससे अनेक महत्त्वपूर्ण बातों का पता चलता है। तदनुसार उत्तरापथ में चन्द्रभागा नदी के तट पर पव्वइया नामक नगरी में तोरमाण या तोरराय नामक राजो राज्य करता था। इसके गुरु गुप्तवंशीय आचार्य हरिगुप्त के शिष्य महाकवि देवगुप्त थे। उनके शिष्य शिवचन्द्रगणि महत्तर भिल्लमाल के निवासी थे, उनके शिष्य यक्षदत्त थे। इनके णाग, बिंद ( वृन्द ), मम्मड, दुग्गा, अग्निशर्मा, बडेसर ( बटेश्वर ) आदि अनेक शिष्य थे, जिन्होंने देवमन्दिर का निर्माण कराकर गुर्जर देश को रमणीय बनाया था। इन शिष्यों में से एक का नाम तत्वाचार्य था । ये ही तत्वाचार्य कुवलयमाला के कर्ता उद्योतनसूरि के गुरु थे। उद्योतनसूरि को वीरभद्रसूरि ने सिद्धान्त और हरिभद्रसूरि ने युक्तिशास्र को शिक्षा दी थी।
५. कण्डिका ४३०.
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