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कथा-साहित्य
( ३, पृ० १०९) तथा विशेषावश्यकभाष्य (गाथा १५०८ ) में मिलता है। निशीथचूर्णि में मलयवती और मगधसेना के समान तरंगवती को लोकोत्तर धर्मकथा कहा गया है ।' उद्योतनसूरि ने चक्रवाल युगल से युक्त सुन्दर राजहंसों को आनन्दित करनेवाली तरंगवती की प्रशंसा की है। इसे वहाँ संकीर्णकथा कहा गया है। इसी तरह धनपाल कवि ने तिलकमंजरी में, लक्ष्मणगणि ने सुपासनाहचरिय में तथा प्रभाचन्द्रसूरि ने प्रभावकचरित में तरंगवती का उदात्त शब्दों में स्मरण किया है।
तरंगवती तो अपने मूल रूप में हमें उपलब्ध नहीं है पर उसका संक्षिप्त रूप १६४२ प्राकृत गाथाओं में 'तरंगलोला' नाम से मिलता है।
रचयिता और रचनाकाल-तरंगवतीकथा के रचयिता एक प्राचीन आचार्य पादलिप्तसूरि हैं। कुवलयमाला की प्रस्तावना-गाथाओं में इन्हें राजा सातवाहन की गोष्ठी की शोभा कहा है। इनका विशेष परिचय प्रभावकचरित में दिवा गया है। प्रोफेसर लायमन ने इसका रचनाकाल ईस्वी सन् की दूसरी-तीसरी शताब्दी स्वीकार किया है।
तरंगलोला-इसे संक्षिप्ततरंगवतो भी कहते हैं। इसमें कथावस्तु को चार खण्डों में विभक्त किया गया है। यह एक अद्भुत शृंगारकथा है जिसका अन्त धर्मोपदेश में होता है। कथा संक्षेप में इस प्रकार है : चन्दनबाला के नेतृत्व में साध्वीसंघ में सुव्रता आर्या थी जिसे अपने रूप-सौन्दर्य का गर्व था। वह एक श्राविका को अपनी जीवनकथा कहती है-वह एक धनी वणिक की
१. तरंगलोला की भूमिका में उद्धृत, पृ० .. २. कुवलयमाला, पृ० ३, गाथा २०, तिलकमंजरी, श्लोक २३; सुपास
नाहचरिय, पुश्वभव, गा० ९; प्रभावकचरित, पृ० २९. जिनरत्नकोश, पृ० १५८, नेमिविज्ञान ग्रन्थमाला, सं० २०००, जर्मन विद्वान् अर्नेस्ट लायमन ने इसका जर्मन भाषान्तर प्रकाशित किया है। इस भाषान्तर का गुजराती अनुवाद नरसिंह भाई पटेल ने जैन साहित्य संशोधक ( द्वितीय खण्ड, पूना, १९२४ ) में प्रकाशित किया; पृथक् पुस्तक के रूप में यह अनुवाद बबलचन्द्र केशवलाल मोदी, महमदाबाद से सन् १९२४ में प्रकाशित; विण्टरनित्स, हिस्ट्री आफ इण्डियन लिटरेचर, भाग २, पृ. ५२२.
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