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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इस पर स्वतंत्र रचना भी मिलसी है जिसके कर्ता खरतरगच्छीय क्षमाकल्याणोपाध्याय ( १९वीं शती का उत्तरार्ध) हैं।'
सुरप्रियमुनिकथानक-अपने किये कर्मों का प्रायश्चित्त करनेवाले सुरप्रिय मुनि की कथा को सं० १६५६ में तपागच्छीय विजयसेनसूरि के शिष्य कनककुशल ने संस्कृत छन्दों में रचा है। इसका गुजराती अनुवाद उपलब्ध है तथा गुजराती में कई रास भी मिलते हैं।
सुव्रतऋषिकथानक-सुव्रत की कथा उपदेशप्रासाद में आई है। इस कथानक पर दो अज्ञातकतृक लघु रचनाएँ मिलती हैं। दोनों प्राकृत में हैं। पहली प्रकाशित कृति में १५७ गाथाएँ हैं और दूसरी अप्रकाशित में केवल ५९ गाथाएँ। __ कनकरथकथा-उत्तम पात्र के लिए भोजनदान के माहात्म्य पर कनकरथ सेठ की कथा कही गई है जो अज्ञातकतृक संस्कृत रचना के रूप में सं० १४८९ की मिलती है। एक अन्य रचना कनकरथचरित्र का भी उल्लेख मिलता है। ___ रणसिंहनृपकथा-धर्मदासगणि की उपदेशमाला पर रत्नप्रभसूरि द्वारा लिखी 'दोघट्टी' टीका (सं० १२३८) में एक रणसिंह की कथा आती है, जिसमें कहा गया है कि वह विजयसेन राजा और विजया रानी का पुत्र था। यह विजयसेन दीक्षा लेकर अवधिज्ञानी हुआ और उसने अपने सांसारिक पुत्र रणसिंह के लिए उवएसमाला की रचना की । माना जाता है कि यही विजयसेन धर्मदासगणि थे।
उक्त रणसिंह नृप की कथा पर एक प्राचीन कृति अज्ञातकतृक मिलती है। तथा दूसरी रचना खरतरगच्छीय सिद्धान्तरुचि के शिष्य मुनिसोम ने सं० १५४० में लिखी है।
१. मणिधारी जिनचन्द्रसूरि अष्टम शताब्दी स्मृतिग्रन्थ, द्वितीय खण्ड, पृ० २७. २. जिनरत्नकोश, पृ० ४४७; हीरालाल हंसराज, जामनगर, १९:७; गुजराती
अनुवाद-मुनि प्रतापविजयकृत, मुक्ति-कमल-जेन मोहनमाला (१२),
बड़ौदा, सं० १९७६. ३. वही, पृ० ४४७; विजयदानसूरीश्वर ग्रन्थमाला, सूरत, सं० १९९५. ४-५. वही, पृ० ६७. ६. वही, पृ० ३२६. ७. मणिधारी जिनचन्द्रसूरि अष्टम शताब्दी स्मृतिग्रन्थ, द्वितीय खण्ड, पृ० २९.
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