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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
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रयणचूडरायचरिय – इसे रत्नचूडकथा या तिलकसुन्दरी- रत्नचूडकथानक भी कहते हैं ।' यह एक लोककथा है जिसका सम्बन्ध देवपूजादिफल - प्रतिपादन के साथ जोड़ा गया है । कथा तीन भागों में विभक्त है : १. रत्नचूड का पूर्वभव, २. जन्म, हाथी को वश में करने के लिए जाना एवं तिलकसुन्दरी के साथ विवाह और ३. रत्नचूड का सपरिवार मेरुगमन और देशव्रत स्वीकार ।
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कथावस्तु — पूर्वजन्म में कंचनपुर के बकुल माली ने ऋषभदेव भगवान् को पुष्प चढ़ाने के फलस्वरूप गजपुर के कमलसेन नृप के पुत्र रत्नचूड के रूप में जन्म ग्रहण किया । युवा होने पर एक मदोन्मत्त हाथी का दमन किया किन्तु हाथी के रूपधारी विद्याधर ने उसका अपहरण कर जंगल में डाल दिया । इसके बाद वह नाना देशों में घूमता हुआ अनेक अनुभव प्राप्त करता है, अनेकों राजकन्याओं से विवाह करता है और अनेकों ऋद्धि-विद्याएँ भी सिद्ध करता है । तत्पश्चात् पत्नियों के साथ राजधानी लौटकर बहुत काल तक राज्यवैभव भोगता है । फिर धार्मिक जीवन बिताकर स्वर्ग-प्राप्ति करता है ।
रचयिता एवं रचनाकाल - इसके रचयिता नेमिचन्द्रसूरि ( पूर्व नाम देवेन्द्रगणि ) हैं जो बृहद्गच्छ के उद्योतनसूरि के प्रशिष्य और आम्रदेव के शिष्य थे । इस रचना का समय तो मालूम नहीं पर इन्होंने अपनी दूसरी कृति महावीरचरिय को सं० १९३९ में बनाया था। इनकी अन्य कृतियों में उत्तराध्ययन-टीका ( सं० ११२९ ) तथा आख्यानमणिकोश भी मिलते हैं । इन्होंने रत्नचूडकथा की रचना डंडिल पदनिवेश में प्रारम्भ की थी और चड्डावलिपुरी में समाप्त की थी । इसकी प्राचीन प्रति सं० १२०८ की मिली है। इसकी ताड़पत्रीय प्रति चक्रेश्वर और परमानन्दसूरि के अनुरोध से प्रद्युम्नसूरि के १२२१ में तैयार की थी।
प्रशिष्य यशोदेव ने सं०
रत्नचूडकथा -- यह संस्कृत पद्यों में वर्णित कथा है ।
इसमें तामिलिनी नगरी के सेठ रत्नाकर के पुत्र रत्नचूड की विदेश में वाणिज्य यात्रा की कथा दी गई है। कथा के बीच में अद्भुत ढंग से स्वप्न और उनका
१. जिनरत्नकोश, पृ० १६०, ३२६, ३२७, पं० मणिविजय ग्रन्थमाला, अहमदाबाद, १९४९.
२. यशोविजय ग्रन्थमाला, सं० ४३, भावनगर; जिनरत्नकोश, पृ० ३२७; इसका जर्मन अनुवाद जे० हर्टल ने किया है जो १९२२ में लीपजिग से प्रकाशित हुआ है।
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