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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास २. कथारत्नाकर-यह कथाकोश दस तरंगों में विभक्त है, जिनमें कुल मिलाकर २५८ कथाएँ हैं।' अनेकों तो सरल संस्कृत गद्य में लिखी गई हैं और बहुत थोड़ी गंभीर शैली में । कुछ संस्कृत पद्यों में भी लिखी गई हैं। इनमें कुछ कथाएँ परम्पराश्रुत हैं, कुछ कल्पनाप्रसूत हैं, कुछ अन्य आधारों से ली गई हैं और कुछ जैनागमों से ली गई हैं। प्रत्येक कथा का प्रारंभ एक या दो उपदेशात्मक गाथा या श्लोक से होता है। सारे ही ग्रन्थ में संस्कृत, महाराष्ट्री, अपभ्रंश, पुरानी हिन्दी और पुरानी गुजराती के उद्धरण प्रचुर मात्रा में पाये जाते हैं। महाभारत, रामायण आदि विशाल ग्रन्थों एवं भतृहरिशतक, पंचतंत्र आदि अनेकों नीति-ग्रन्थों से सुपरिचित कुछ उद्धरण भी लिये गये हैं। ग्रन्थ का जैन दृष्टिकोण उसके प्रारंभ के श्लोक, भाव और कथाओं से ही स्पष्ट हो जाता है । इसमें शृंगार से लेकर वैराग्य तक विचारों और भावों का समावेश है। विण्टरनित्स का कहना है कि इसमें अनेक कहानियाँ पंचतंत्र या उस जैसे कथाग्रन्थों में पाई जानेवाली कथाओं जैसी हैं । यथा-स्त्री-चातुर्य की कहानियाँ, धूतों की कथाएँ, मूर्खकथाएँ, प्राणिकथाएँ, परीकथाएँ, अन्य सभी प्रकार के चुटकुले जिनमें ब्राह्मणों और दूसरे मतों का उपहास है। पंचतंत्र के समान ही इनमें कथाओं के बीच-बीच में अनेक सदुक्तियाँ फैली हुई हैं। इसमें कहानियाँ एक-दूसरे से यों ही जोड़ दी गई हैं। वे एक ढाँचे में सजायी नहीं गई है। ग्रन्थ का अधिक भाग वास्तव में एक दृष्टिकोण से भारतीय ही है। जैन कथाग्रन्थों में सामान्य रूप से आने वाले नामों के अतिरिक्त इसमें भोज, विक्रम, कालिदास, श्रेणिक आदि के उपाख्यान दिये गये हैं। कुछ भौगोलिक उल्लेख भी इसमें बिल्कुल आधुनिक हैं और दिल्ली, चम्पानेर तथा अहमदाबाद जैसे नगरों से सम्बन्धित कहानियाँ भी हैं। संक्षेप में इसका विषय शिक्षाप्रद और मनोरंजक दोनों ही है।
रचयिता और रचनाकाल-इसके रचयिता हेमविजयगणि हैं जो तपागच्छीय कल्याणविजयगर्माण के शिष्य थे। इनका विशेष परिचय अन्यत्र दिया गया है। इस ग्रन्थ की रचना सं० १६५७ में की गई है। इनकी अन्य कृतियाँ पाश्वनाथ
१. हीरालाल हंसराज, जामनगर, १९११, इसका जर्मन अनुवाद १९२० में
हर्टल महोदय ने किया है। २. विण्टरनित्स, हिस्ट्री आफ इण्डियन लिटरेचर, भाग २, पृ० ५४५. ३. अहिमनगरदेंगे वर्षेष्यश्वेषु रसावनौ ।
मूलमार्तण्डसंयोगे चतुर्दश्यां शुचौ शुचेः ।। -प्रशस्ति.
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