________________
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
कर्पूरप्रकरकाव्य का प्रारंभ 'कर्पूरप्रकर' वाक्य से होता है अतः उसका नाम वही हो गया । इसका प्रत्येक पद बड़ी सुन्दरता से प्रस्तुत किया गया है और प्रसंगानुकूल दृष्टान्तों द्वारा समझाया गया है । उदाहरण के लिए जीवदया पर नेमिनाथ का तथा परस्त्री अनुराग के कुफल पर रावण का दृष्टान्त प्रस्तुत किया गया है । प्रत्येक पद्य में एक या अधिक दृष्टान्तरूप कहानियाँ दी गई हैं । इन्हीं दृष्टान्तों को आधार बनाकर कथाओं का विस्तार कर यह ग्रन्थ बनाया गया है ।
२४४
रचयिता और रचनाकाल -- इसके रचयिता तपागच्छीय रत्नशेखरसूरि के शिष्य सोमचन्द्रगणि हैं जिन्होंने इसकी रचना वि० सं० १५०४ में की थी। कर्पूरप्रकर के आधार पर दूसरा कथाकोश भी उपलब्ध है, यथा खरतर - गच्छीय जिनवर्धनसूरि के शिष्य जिनसागर की कर्पूरप्रकर- टीका । इसका समय सं० १४९२ से १५२० माना जाता है । इस प्रकार यह टीका सोमचन्द्रकृत कथामहोदधि के समकालीन है । इसमें उक्त काव्य के पद्यों की व्याख्या करने के बाद दृष्टान्त-कथा संस्कृत श्लोकों में दी गई है। कथा का प्रवेश आगमों या उपदेशमाला जैसे ग्रन्थों के गद्य-पद्यमय प्राकृत उद्धरणों को देते हुए किया गया है । इसमें कथाओं के शीर्षक और क्रम ' कथामहोदधि' के समान ही हैं। इसमें नेमिनाथ, सनत्कुमार प्रभृति पुराण पुरुषों, सत्यकी, चेल्लणा, कुमारपाल प्रभृति ऐतिहासिक- अर्धैतिहासिक पुरुष और अतिमुक्तक, गजसुकुमाल प्रभृति तपस्वियों तथा जैन परम्परा के धर्मपरायण पुरुष-महिलाओं की कहानियां गई हैं।
कर्पूरप्रकर पर तपागच्छीय चरणप्रमोद की तथा अज्ञात लेखक की वृत्ति ( ग्रन्थाम १७६८ ) मिलती है तथा हर्षकुशल और यशोविजयगणि की टीका तथा मेरुसुन्दर के बालावबोध ( टीका ) और धनविजयगणिकृत स्तबक का उल्लेख मिलता है ।' संभवतः इनमें से कुछ उक्त कथाकोशों के समान ही हों ।
कथाकोश ( भरतेश्वर बाहुबलिवृत्ति ) - मूल में यह १३ गाथाओं की प्राकृत रचना है जो 'भरहेसर बाहुबलि' पद से प्रारंभ होती है । संभवतः यह
जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर, १९१९.
१.
२. जिनरत्नकोश, पृ० ६९.
देवचन्द्र लालभाई पुस्तकोद्धार, बम्बई से बड़े दो भागों में सन् १९३२ मौर १९३७ में प्रकाशित.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org