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________________ कथा-साहित्य २३५ यद्यपि इनका उद्देश्य इतिहास की अपेक्षा आराधना-समाधिमरण का महत्त्व बतलाना अधिक है। इसमें १३१वीं कथा-भद्रबाहु-में दो बातें ऐसी कही गई हैं जो अन्य कथाग्रन्थों एवं शिलालेखों से विरुद्ध पड़ती हैं। इस कथा के अनुसार भद्रबाहु का समाधिमरण उजयिनी के समीप भाद्रपद देश (स्थान) में हुआ था और १२ वर्षीय अकाल के समय जैनसंघ को दक्षिण देश में ले जानेवाले उनके शिष्य चन्द्रगुप्त अपरनाम विशाखाचार्य थे । अन्य कथाओं और लेखों के अनुसार भद्रबाहु स्वयं दक्षिण देश ससंघ गये थे और उनका समाधिमरण श्रवणबेलगोल के चन्द्रगिरि पर्वत में हुआ था । चन्द्रगुप्त उनके साथ ही गये थे और उनका नाम प्रभाचन्द्र था। इसमें अन्य दिग० कथाकोशों की भाँति समन्तभद्र, अकलंक और पात्रकेसरी की कथायें नहीं दी गई हैं। इस कथाकोश की प्रशस्ति के आठवें पद्य में इसे 'आराधनोद्धृत' कहा गया है। इससे ज्ञात होता है कि आराधना नामक किसी ग्रन्थ में जो उदाहरण रूप कथायें थीं उन्हें यहाँ उदधृत किया गया है। इस तथ्य के संकेत रूप में यत्र-तत्र शिवार्य की भगवतीआराधना का नाम दिया गया है। इस ग्रन्थ के विद्वान् सम्पादक डा० आदिनाथ ने० उपाध्ये का मत है कि प्रस्तुत ग्रन्थ के कितनेक अंश संभवतः किसी प्राकृत ग्रन्थ से संस्कृत में अनूदित हुए हैं क्योंकि इसमें बहुत से प्राकृत नाम ज्यों के क्यों रह गये हैं, यथा-मेदज्ज (मेतार्य), भारहेवासे ( भारतवर्षे), वाणारसी (वाराणसी), विजुदाढ (विद्युदंष्ट्र ) आदि । पंया, विकुव्वणा आदि कितने ही शब्द संस्कृत रचनाओं में दुर्लभ हैं किन्तु प्राकृत ग्रन्थों में सुलभ हैं। यह सब देख 'आराधनोद्धृत' का अर्थ आराधना नामक प्राकृत ग्रन्थ से ही उद्धृत किया हुआ या लिया हुआ होना चाहिये। रचयिता एवं रचनाकाल-प्रन्थ के अन्त में दी गई प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि इसके कर्ता आचार्य हरिषेण हैं। प्रशस्ति में उनकी परम्परा दी गई है। तदनुसार पुन्नाट संघ में मौनिभट्टारक, उनके शिष्य हरिषेण (प्रथम), उनके शिष्य भरतसेन (जो अनेक शास्त्रों के ज्ञाता तथा किसी काव्य के कर्ता थे) और उनके शिष्य प्रस्तुत हरिषेण (ग्रन्थकर्ता) थे। इस ग्रन्थ की रचना काठियावाड़ के बढमान ( वर्धमानपुर ) नामक स्थान में वि० सं० ९५५ में हुई थी। इसी बढमान में शक सं० ७०५ (वि० सं० ८३० ) में पुनाट संघ के एक आचार्य जिनसेन ने हरिवंशपुराण की रचना की थी। संभवतः हरिषेण भी उनकी परम्परा के हो, यदि हमें बिनसेन और हरिषेण के परदादागुरु मौनिभट्टारक के बीच की दो तीन पीढ़ियों का पता लग जाय | जिनसेन के हरिवंश की प्रशस्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002099
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 6
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGulabchandra Chaudhary
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1998
Total Pages722
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Literature, Kavya, & Story
File Size11 MB
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