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कथा-साहित्य
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आगमों, चूर्णियों, टीकाओं की परम्परा का अनुसरण करते हुए प्राचीन आदर्शों को बतलानेवाली कथाओं के संग्रह हैं। इनमें समागत अनेक कथाएँ परवर्ती अनेक स्वतंत्र रचनाओं की उपजीव्य हैं। इसके बाद हम उन प्रमुख कथाग्रन्थों का वर्णन करेंगे जो धर्म-अर्थ-काम पुरुषार्थों का एक साथ प्रतिपादन करने में सक्षम हैं और अपने में एक विशाल कथा-जाल को भरे हुए हैं। इसके बाद नीतिकथा अर्थात् दान, शील, अहिंसादि व्रतो, पर्यो, तीर्थों आदि से सम्बद्ध कथाओं को देकर कल्पितकथा, लोककथा और प्राणिकथा आदि पर उपलब्ध रचनाओं का विवेचन करेंगे। औपदेशिक कथा-संग्रह
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग ४ में हम देख चुके हैं कि आगमिक प्रकरणों का उद्भव और विकास कैसे हुआ है। हम प्रारंभ में कह आये हैं कि चरणकरणानुयोग विषयक साहित्य धर्मोपदेश या औपदेशिक प्रकरणों के रूप में उद्भूत एवं विकसित हुआ है।
धर्मोपदेश में संयम, शील, तप, त्याग और वैराग्य आदि भावनाओं को प्रमुख बताया गया है। इनका उपदेश कोमलमति श्रोताओं के उद्देश्य से करने के लिए कथाओं का अच्छा माध्यम चुना गया है। प्रवचन के प्रारम्भ में, प्रवचनकार जैन साधु, कुछ शब्दों या श्लोकों में अपनी धर्मदेशना का प्रसंग बता देता है और फिर एक लम्बी-सी मनोरंजक कहानी कहने लगता है जिसमें अनेक रोमांचक घटनाये होती हैं और अनेक बार एक कथा में से दूसरी कथाएँ निकलती जाती हैं। इस तरह ये औपदेशिक प्रकरण अत्यन्त मूल्यवान् कथासाहित्य से भरे हुए हैं जिसमें हर प्रकार की कहानियाँ-रमन्यास, उपन्यास, दृष्टान्तकथा, प्राणिनीतिकथा, पुराणकथायें, परिकथायें और नानाविध कौतुक और अद्भुत कथाएँ मिलती हैं ।
जैनों ने इस प्रकार के विशाल औपदेशिक कथा-साहित्य का निर्माण किया है। जैन साहित्य के बृहद् इतिहास के चतुर्थ भाग में धर्मोपदेश प्रकरण के अन्तर्गत जो उपदेशमाला, उपदेशप्रकरण, उपदेशरसायन, उपदेशचिन्तामणि, उपदेशकन्दली, उपदेशतरंगिणी, भावनासार आदि ५० ६० रचनायें संक्षिप्त विवरण के साथ दी गई हैं: वे अधिकांश में टीका और वृत्ति के रूप में जैन कथाओं के संग्रह ही हैं। उदाहरण के लिए धर्मदासगणिकृत उपदेशमालाप्रकरण को लें। इस पर १०वीं शताब्दी से लेकर १८वीं शताब्दी तक लगभग २० संस्कृत टीकाएँ लिखी गई हैं। इसकी ५४२ गाथाओं में दृष्टान्तस्वरूप ३१०
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