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प्रकरण ३
कथा-साहित्य
पुराण-चरित-साहित्य के समान ही जैनों का कथा-साहित्य भी खूब समृद्ध है। वेदों और पालि त्रिपिटक की भाँति जैनों के अर्धमागधी आगम ग्रन्थों में भी छोटी-बड़ी सभी प्रकार की अनेक कहानियां मिलती हैं। उनमें दृष्टान्त, उपमा, रूपक, संवाद एवं लोक-कथाओं द्वारा संयम, तप और त्याग का विवेचन किया गया है। जैनागमों के नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि एवं टोका-ग्रन्थों में तो अपेक्षाकृत विकसित कथा-साहित्य के दर्शन होते हैं। उनमें ऐतिहासिक, अर्धतिहासिक, धार्मिक एवं लौकिक आदि कई प्रकार की कथाएँ संगृहीत हैं। फिर जैनों ने कथाओं के पृथक् ग्रन्थों का भी बड़ी संख्या में प्रणयन किया है। ___ कथा के भेदों का निरूपण करते हुए आगमों में अकथा, विकथा, कथा तीन भेद किये गये हैं। उनमें कथा तो उपादेय है, शेष त्याज्य । उपादेय कथा के विभिन्न रूपों का वर्गीकरण विषय, शैली, पात्र एवं भाषा के आधार पर किया गया है। विषय की दृष्टि से चार प्रकार की कथाएँ होती हैं-अर्थकथा, कामकथा, धर्मकथा और मिश्रकथा । धर्मकथा के चार भेद किये गये हैंआक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेदनी और निवेदनी। जैनाचार्यों ने अधिकतर इसी को उपादेय माना है। मिश्रकथा में मनोरंजक और कौतुकवर्धक सभी प्रकार के कथानक रहते हैं। जैन कथाकारों में यह प्रकार भी प्रशंसनीय माना गया है। पात्रों के आधार से दिव्य, मानुष और मिश्र कथाएँ कही गई हैं। भाषा की दृष्टि से संस्कृत, प्राकृत और मिश्र रूप में कथाएँ लिखी गई और इन तीनों प्रकारों को खूब अपनाया गया है। इसी तरह शैली की दृष्टि से सकलकथा, खण्डकथा, उल्लावकथा, परिहासकथा और संकीर्णकथा के भेद से पंचविध कथाएँ मानी गई हैं। यहाँ इन सबका विस्तार से विवेचन करना संभव नहीं पर सभी प्रकारों में मिश्र या संकीर्ण भेद में अनेक तत्त्वों का मिश्रण होने से जनमानस का अनुरंजन करने की अधिक क्षमता होती है। यह गद्य-पद्य मिश्रित तथा प्राकृत-संस्कृत मिश्र रूप में भी लिखी गई है।
जिस तरह आज के कथा-साहित्य के उद्देश्य, कथानक, पात्र और शैली ये ४ मूल तत्त्व हैं उसी तरह कथाओं के उपर्युक्त भेदों में इन तत्वों के दर्शन सुदूर
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