________________
२२२
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास हुआ था और दीक्षा जिनचन्द्रसूरि (३) से सं० १३७० में मिली थी, इनका नाम लब्धिनिधान था। सं० १३८८ में जिनकुशलसूरि ने इन्हें उपाध्यायपद दिया था। सं० १३८९ में जिनकुशलसूरि का स्वर्गवास हुआ और सं० १३९० में उनके स्वर्गवास के लगभग ३॥ माह बाद पद्ममूर्ति क्षुल्लक को जिनपद्म नाम से पट्टपद मिला था। १० वर्ष बाद सं० १४०० में इन्हीं जिनपद्मसूरि के पद पर लब्धिनिधानोपाध्याय को जिनलब्धिसूरि नाम से पट्टपद मिला था। उनका स्वर्गवास सं० १४०४ में हुआ था। इस चरित की रचना उनके ही सतीर्थ्य तरुणप्रभसूरि ने ही की है।
जिनलब्धिसूरि पर चार गाथाओं में जिनलब्धिसूरि-स्तूपनमस्कार और आठ गाथाओं में जिनलब्धिसूरि-नागपुर-स्तूप-स्तवन नामक संक्षिप्त' कृतियाँ भी मिलती हैं जिनमें उनके माता-पिता के नाम, जन्म, दीक्षा, उपाध्याय, आचार्यपद, स्वर्गवास आदि बातें उल्लिखित हैं। जिनलब्धिसूरि अनेक स्तोत्रों के लेखक थे।
जिनकृपाचन्द्रसूरीश्वरचरित-इसमें बीसवीं शताब्दी के खरतरगच्छीय आचार्य कृपाचन्द्रसूरि का जीवनवृत्त दिया गया है जिसमें ५ सग हैं और कुल मिलाकर विविध छन्दों में १५७० पद्य हैं। कृपाचन्द्रसूरि का जन्म सं० १९१३ में हुआ था, १९३६ में दीक्षा, १९८२ में आचार्यपद और १९९४ में स्वर्गवास हुआ था। यह काव्य विविध छन्दों से विभूषित है। सर्गों में स्थल-स्थल पर छन्द-परिवर्तन किये गये हैं।
१. 'जिनभद्रसूरिस्वाध्यायपुस्तिका' जिससे कि उपर्युक्त रचनाएं प्राप्त हुई हैं,
प्रभावक एवं सुप्रसिद्ध आचार्य जिनभद्रसूरि द्वारा ही संकलित पुस्तिका है। उक्त सूरि ने ही जैसलमेर, खंभात, पाटन, जालौर, नागौर आदि स्थानों में ज्ञानभण्डार स्थापित किये थे और अनेक तीर्थ-मन्दिरों की प्रतिष्ठाएं कराई थीं। इसकी पुष्पिका इस प्रकार है : सं० १४९० वर्षे मार्गशिर सुदि • गुरौदिने शतभिषा नक्षत्रे हरषणयोगे श्रीविधिमार्गीय सुगुरु श्रीजिनराजसूरि दीक्षितेन परम भट्टारक प्रभुश्रीमज्जिनभद्रसूरि आत्मनमवबोधार्थ श्रीसज्झायपुस्तिका संपूर्णा जाता।--महावीर विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रन्थ, खण्ड १, बंबई, १९६८, पृ०२५-३६ में श्री भगरचन्द
एवं भंवरलाल नाहटा का लेख. . २. जिनकृपाचन्द्रसूरि ज्ञानभण्डार, पालीताना से सं० १९९५ में प्रकाशित.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org