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पौराणिक महाकाव्य
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अन्य कृति कालकाचार्यकथा प्राकृत में मिलती है। इस काव्य पर पद्मनन्दनसूरि ने टीका लिखी है।
दूसरी रचना पद्मसागरकृत है। इसे शीलप्रकाश भी कहते हैं। इसमें सात सर्ग हैं और यह सं० १६३४ में रची गई है। कर्ता तपागच्छ के आचार्य विमलसागर और धर्मसागर के शिष्य थे।
तीसरी रचना शीलदेवकृत तथा एक अज्ञातकर्तृक रचना का उल्लेख भी मिलता है। इसी तरह केशरियाजी मन्दिर, जोधपुर में वीरकलश के शिष्य सूरचन्द्रकृत स्थूलभद्रगुणमालामहाकाव्य' का उल्लेख मिलता है ।
कालकाचार्यकथा-कालकाचार्य को कालिकाचार्य भी कहा गया है। युगप्रधान आचार्यों में इनकी जीवनी बड़ी ही चमत्कारपूर्ण मानी गई है। प्राचीन ग्रन्थों में, यथा उत्तराध्ययननियुक्ति और चूर्णि, बृहत्कल्पभाष्य और चूर्णि, पंचकल्पभाष्य और चूर्णि, दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि, निशीथचूर्णि, व्यवहारचूर्णि, आवश्यकचूर्णि तथा भद्रेश्वरकृत कहावली में इनके जीवन से सम्बन्धित अनेक घटनाओं का वर्णन मिलता है। उन घटनाओं में से उज्जैनी के गर्दभ राजा का उच्छेद, निगोद की सूक्ष्म व्याख्या, सुवर्णभूमिगमन, आजीविकों से निमित्त शास्त्र का अध्ययन, अनुयोगों की रचना तथा सातवाहन राजा को मथुरा का भविष्य-कथन ऐतिहासिक तत्ववाली घटनायें मानी जाती हैं। इनका समय ईसापूर्व द्वितीय और प्रथम शताब्दी के बीच माना जाता है। डा. उमाकान्त प्रेमानन्द शाह ने इनका साम्य आर्य श्याम से स्थापित किया है।'
७. जिनरत्नकोश, पृ० ३८४, ४५८, हीरालाल हंसराज, जामनगर, १९११. २. मणिधारी जिनचन्द्रसूरि अष्टम शताब्दी स्मृतिग्रन्थ, खरतरगच्छ साहित्य
सूची, पृ० २६. ३. जिनरत्नकोश, पृ० ८६-८८, एन. डब्ल्यू ब्राउन, स्टोरी ऑफ कालक,
वाशिंगटन, १९३३; साराभाई मणिलाल नवाब, अहमदाबाद द्वारा प्रकाशित कालकाचार्य कथा; पंजाब विश्वविद्यालय पत्रिका में ६ कथानों का मूल और
डा. बनारसीदास जैन कृत हिन्दी अनुवाद; कालकाचार्य-कथासंग्रह, १९४५. ४. डॉ० शाह ने अपने लघु ग्रंथ 'सुवर्णभूमि में कालकाचार्य' में प्राचीन और
अर्वाचीन सामग्री का विश्लेषण कर यह मत प्रकट किया है कि अर्वाचीन सामग्री में अनेक नाम विकृत हैं तथा काल्पनिक बातें जोड़ी गई हैं।
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