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पौराणिक महाकाव्य
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यह ग्रन्थ अनुष्टुभ् छन्द में रचा गया है।
रचयिता और रचनाकाल-इसके रचयिता प्रसिद्ध हेमचन्द्राचार्य हैं जिनका परिचय पहले दिया जा चुका है। यह ग्रन्थ उनके जीवन के उत्तरकाल की रचना है इसलिए पद्य-रचना में उनका अद्भुत कौशल दिखाई पड़ता है।
प्रभावकचरित-इसे 'पूर्वर्षिचरित' भी कहते हैं। यह ग्रन्थ' एक प्रकार से परिशिष्टपर्व का पूरक है। परिशिष्टपर्व में जम्बू से लेकर वज्रस्वामी तक चरित दिये गये हैं तो प्रस्तुत ग्रन्थ में लेखक ने वज्रस्वामी से हेमचन्द्र तक आचार्यों की जीवनियाँ दी हैं। दूसरे शब्दों में इसमें विक्रम की पहली शताब्दी से लेकर १३वीं शताब्दी तक आचार्यों के चरित वर्णित हैं। उनमें प्राचीन आचार्यों में पादलिप्त, सिद्धसेन, मल्लवादी, हरिभद्रसूरि तथा बप्पभट्टि के चरित उल्लेखनीय हैं। चौलुक्य नरेशों के समकालीन वीरसूरि, शान्तिसूरि, महेन्द्रसूरि, सूराचार्य, अभयदेव, वीरदेव और हेमचन्द्रसूरि के चरित तो गुजरात के इतिहास के लिए बड़े महत्त्वपूर्ण हैं। इस चरित की ऐतिहासिक विशेषता को हम ऐतिहासिक. काव्यों के प्रसंग में बतलावेंगे।
रचयिता और रचनाकाल-इसकी रचना चन्द्रकुल के राजगच्छ के चन्द्रप्रभ के शिष्य आचार्य प्रभाचन्द्र ने वि० सं० १३३४ में की थी। ग्रन्थ के अन्त में एक अच्छी प्रशस्ति दी गई है जिससे कवि का परिचय प्राप्त होता है। इस ग्रन्थ का संशोधन प्रसिद्ध संशोधक, आचार्य प्रद्युम्नसूरि ने किया था। ग्रन्थकार ने अपने संक्षिप्त विषयप्रवेश में लिखा है कि उन्होंने इस कृति की सामग्री अपने पूर्ववर्ती आचार्यों की कृतियों से तथा अपने समय में प्रचलित आख्यानों से ली है। इसमें हेमचन्द्राचार्य के विषय में दिया गया चरित उनके विषय में उपलब्ध सभी चरितों से प्राचीन कहा जा सकता है। यह ग्रन्थ हेमचन्द्र के स्वर्गवास के ८० वर्ष पश्चात् लिखा गया था। ___ इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ के अतिरिक्त ग्रन्थकार की अन्य कृति नहीं मिलती। प्रमाचन्द्र ने धर्मकुमाररचित धन्यशालिभद्रचरित (सं० १३३८) का संशोधन भी किया था।
१. पं० हरिनन्द शर्मा द्वारा सम्पादित, निर्णयसागर प्रेस, बम्बई, १९०९॥
मुनि जिनविजय द्वारा संपादित, सिंघी जैन ग्रन्थमाला, १९४०, जिनरस्नकोश, पृ०.२६६.
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