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जैन साहित्य का वृहद् इतिहास तरी के रूप में प्रसिद्ध हुई थी। जयन्ती ने महावीर से जीव और कर्म विषयक अनेक प्रश्न पूछे थे।
वृत्तिकार ने अभयदान में मेघकुमार-कथा, करुणा-दान में सम्प्रतिनृप-कथा, शील पालन पर सुदर्शनसेठ-मनोरमा-कथा, मान में बाहुबलि की कथा तथा अन्य प्रसंगों में बप्पभट्टसूरि, आर्यरक्षित आदि की कथाएँ और अन्त में जयन्ती की कथा दी है । इस वृत्ति में संस्कृत गद्य-पद्य का मिश्रण हुआ है।
रचयिता और रचनाकाल-ग्रन्थान्त में २० श्लोकों में ग्रन्थकार की तथा १८ श्लोकों में ग्रन्थ-लेखक की प्रशस्ति दी गई है जिससे ज्ञात होता है कि वटगच्छ में क्रमशः सर्वदेवसूरि, जयसिंहसूरि, चन्द्रप्रभसूरि, धर्मघोषसूरि, शीलगणसूरि हुए । उसी गच्छ की पूर्णिमा शाखा के गच्छपति मानतुंगसूरि ने जयन्तीप्रश्नोत्तरप्रकरण का निर्माण किया और उनके शिष्य मलयप्रभ ने वि० सं० १२६० ( ज्येष्ठ कृष्ण ५) में इस पर वृत्ति लिखी। इस ग्रन्थ का लेखन सं० १२६१ में चौलुक्य नरेश भीमदेव द्वितीय के राज्य में प्राग्वाटवंशी सेठ धवल की पुत्री नाउ श्राविका ने पंडित मुंजाल से लिखाकर मंकुशिला स्थान में अजितदेवसूरि को समर्पण किया।
मानतुंग की अन्य रचना के विषय में मालूम नहीं पर मलयप्रभ ने स्वप्न. विचारभाष्य लिखा था।
सुलसाचरित-भग. महावीर के श्राविकासंघ की प्रमुखा सुलसा अपने दृढ़ सम्यक्त्व के लिए प्रसिद्ध थी। उसी के चरित्र को लेकर आगमगच्छीय जयतिलकसूरि ने ८ सर्गों में यह काव्य लिखा है जिसमें ५४० संस्कृत श्लोक हैं। इसकी अनेकों हस्तलिखित प्रतियाँ मिलती हैं। प्राचीनतम सं० १४५३ की है।
महावीरकालीन अन्य श्राविकाओं में रेवती के चरित पर रेवतीश्राविकाकथा' (संस्कृत) उपलब्ध है। प्रभावक आचार्यविषयक कृतियाँ :
जैन कवियों ने तीर्थकरादि महापुरुषों के समुदित चरितों-महापुराण या त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित आदि के समान समुदित रूप से आचार्यों मुनियों के
१. जिनरत्नकोश, पृ० ४४७. २. वही, पृ. ३३३.
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