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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास काव्यकर्ता और रचना-समय-खरतरगच्छ के अन्तर्गत दत्तगच्छ के पाठक रूपचन्द्रगणि' ने सं० १८०७ में इस काव्य की रचना की । ग्रन्थ के अन्तिम चार श्लोकों में ग्रन्थकार की प्रशस्ति दी गई है जिससे ज्ञात होता है कि उन्होंने जोधपुर नगर में श्री अभयसिंह नृप के राज्यकाल में इसकी रचना की थी।
इस काव्य पर वि० सं० १८५२ में अमृतधर्म के शिष्य उपाध्याय क्षमाकल्याणगणि ने गौतमीयप्रकाश नामक व्याख्या लिखी है।
भग० महावीर के ११ गणधर थे पर गौतम को छोड़ अन्य पर स्वतन्त्र रचनाएँ उपलब्ध नहीं हैं।
गांगेयभंगप्रकरण-भग० महावीर और पार्श्वनाथ सन्तानीय मुनि गांगेय के बीच नारक जीवों आदि के सम्बन्ध में हुई चर्चा का वर्णन भगवतीसूत्र के ९वें शतक के ३२वें उद्देश में दिया गया है । उसी की स्मृति जागरूक रखने के लिए गांगेय मुनि के जीवन पर पद्मविजय ने सं० १८७८ में ५४ प्राकृत गाथाओं में तथा मेघमुनि के शिष्य श्रीविजय ने २३ गाथाओं में स्वोपज्ञ अवचूरि के साथ रचना की है। उत्तमविजय के शिष्य धर्मविजय द्वारा रचित गांगेयभंगप्रकरण' का भी उल्लेख मिलता है।
उदायनराजकथा तथा प्रभावतीकथा-सिन्धु-सौवीर महावीर-बुद्ध के समय में एक विशाल राज्य माना जाता था। वहाँ के राजा का नाम उदायन था जो अपने समय का बड़ा पराक्रमी और प्रभावक राजा था। उसकी रानी का नाम प्रभावती था जो वैशाली के राजा चेटक की पुत्री थी। प्रभावती निर्ग्रन्थ श्राविका थी, पर उदायन तापस भक्त था। प्रभावती मृत्यु पाकर स्वर्ग में गई । उसने अपने पति को प्रतिबोधा और उसे दृढ़निष्ठ श्रावक बनाया। पीछे वह अपने भांजे केशी को राज्य सौंप दीक्षित हो गया। जैन कवियों को उदायन राजर्षि और प्रभावती के चरित बड़े रोचक लगे और उन्होंने उदायननृपप्रबन्ध,
१. इनका दूसरा नाम रामविजयोपाध्याय है और इन्हें दयासिंह का शिष्य कहा
गया है। २. जिनरत्नकोश, पृ० १०४; मात्मवीर ग्रन्थमाला में १९१७ में प्रकाशित. ३. जैन भात्मानन्द सभा, भावनगर से प्रकाशित; इसकी हस्त० प्रति सं०
१६७२ की मिली है। ५. जिनरत्नकोश, पृ० १०४.
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