________________
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास पम्प, नयसेन, जन्न, गुणवर्म, कमलभव और महाबलि ने अपने पुराणों में जटासिंहनन्दि का उल्लेख किया है। प्रस्तुत कवि ने अपने ग्रन्थ में किसी भी पूर्ववर्ती कवि का उल्लेख नहीं किया है। चूंकि इनका सर्वप्रथम उल्लेख उद्योतनसूरि की कुवलयमाला (शक सं० ७०० =७७८ ई०) में हुआ है अतः जटासिंहनन्दि इनसे अवश्य पूर्ववर्ती हैं। कन्नड साहित्य में इनके विविध उल्लेखों से प्रमाणित होता है कि ये कर्णाटकवासी थे। कर्णाटक प्रदेश के पल्लक्कीगुण्डु नाम की पहाड़ी पर अशोक के शिलालेख के समीप दो पदचिह्न अंकित हैं। उनके ठीक नीचे पुरानी कनड़ी में दो पंक्ति का एक शिलालेख है जिसमें लिखा है कि चावय्य ने जटासिंहनन्याचार्य के पदचिह्नों को तैयार कराया। संभवतः इसी कवि का वह समाधिस्थल हो ।' इस काव्य के सम्पादक डा० आ० ने य ने जटासिंहनन्दि का समय सातवीं शती ईस्वी का अन्त बतलाया है। कवि के इस काव्य की तुलना अनेक दृष्टियों से अश्वघोष के बुद्धचरित से की जा सकती है। कालिदास और भारवि की रचनाओं और वरांगचरित में कोई साम्य नहीं है।
वरांगचरित पर अन्य संस्कृत रचनाएँ ६-७ शताब्दी बाद की हैं।
२. वरांगचरित-इस द्वितीय रचना में १३ सर्ग हैं और काव्य का परिमाण अनुष्टुप छन्दों में १३८३ है।' इसका आधार पूर्वोक्त वरांगचरित है । पर इसके रचयिता ने उक्त कथानक में से वर्णन और धर्मोपदेशों को कम कर दिया है। धार्मिक और दार्शनिक चर्चाएँ भी नाममात्र के रूप में हुई हैं। कथानक में कवि ने मात्र इतना परिवर्तन किया है कि जहाँ जटासिंहनन्दि ने वरांग की विरक्ति का कारण आकाश में टूटते हुए तारे का दर्शन बतलाया, वहाँ प्रस्तुत काव्य में उसकी विरक्ति का कारण दीपक का तैल घट जाने से उसकी क्षीण होती हुई ज्योति का दर्शन है।
यद्यपि यह पूर्व वरांगचरित का संक्षिप्त रूप है फिर भी कवि ने अपने भावों को सुन्दर रसों, अलंकारों और छन्दों में व्यक्त करने में सफलता पाई है। इसमें
१. प्रस्तावना, पृ० १९. २. वही, पृ० २२. ३. वही, पृ० ०३. ४. पं० जिनदास पाश्वनाथ फड़कुले द्वारा सम्पादित और मराठी में अनूदित,
सोलापुर, १९२७.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org