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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
यह अनेक अद्भुत घटनाओं से भरा हुआ है। इसमें सरल एवं प्रसादपूर्ण ढंग से अनेक अवान्तर कथाएँ वर्णित हैं । इस ग्रन्थ का आधार पूर्वाचार्यों की प्राकृतबन्ध कृति है । "
कर्ता एवं कृतिकाल — इसके रचयिता सत्यराजगणि हैं । कवि ने ग्रन्थान्त में १० पद्यों की प्रशस्ति द्वारा अपना परिचय दिया है जिससे ज्ञात होता है कि ये पूर्णिमागच्छ के पुण्यरत्नसूरि के शिष्य थे । यह ग्रन्थ अहमदाबाद में वि० सं० १५३५ में रचा गया था । ग्रन्थरचना के समय इनके गुरु की विद्यमानता मांडल पत्तन के ऋषभदेव मन्दिर से प्राप्त एक धातुप्रतिमा - लेख ( वि० सं० १५३१ ) से ज्ञात होती है । -
३. पृथ्वीचन्द्र चरित - वृद्ध तपागच्छ के उदयसागर के शिष्य लब्धिसागर ने इसे सं० १५५८ में संस्कृत भाषा में लिखा था। इनकी दूसरी रचना श्रीपालकथा सं० १५५७ में बनी थी ।
४. पृथ्वीचन्द्र चरित - यह संस्कृत गद्य में ११ सर्गात्मक बृहत्कृति है । ग्रन्थाग्र ५९०१ श्लोक -प्रमाण है । गद्य सरल भाषा में है और बीच-बीच में संस्कृत और प्राकृत के पद्य भी यहाँ वहाँ से उद्धृत हैं । इसमें कवि ने अपनी रचना का आधार किसी प्राकृत कृति को माना है : कविना प्राक्कृतस्य प्राकृतपृथ्वीचन्द्र चरित्रस्य गद्यबन्धभाषया किंचित् लिख्यते ।
कर्ता एवं कृतिकाल -- ग्रन्थान्त में ११ पद्मों की प्रशस्ति दी गई है जिससे ज्ञात होता है कि इसके रचयिता तपागच्छ-संविग्नशाखा के पद्मविलयगण के शिष्य रूपविजयगणि हैं जिन्होंने प्रस्तुत काव्य अहमदाबाद नगर में वि० सं० १८८२ श्रावण मास में नेमिनाथ के जन्म दिन पर बनाया था। *
एतद्विषयक अन्य कृतियों के लेखकों का नाम अज्ञात है । उनमें एक संस्कृत गद्य में भी मिलती है। "
१. प्रशस्ति, पद्य ४.
२. जिनरत्नकोश, पृ० २५६; हीरालाल हंसराज, जामनगर, १९१८.
३. वही, पृ० २५६.
४. जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर, १९१८; मेसर्स ए० एम० कम्पनी,
भावनगर, १९३६, प्रशस्ति, पद्य ५- ११.
५. जिनरत्नकोश, पृ० २५६.
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