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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास इसकी भाषा सरल और स्वाभाविक है। घटना और परिस्थिति के अनुकूल शब्द-योजना में कवि सफल है। यद्यपि इसमें शान्तरस प्रमुख है फिर भी अन्य रसों की व्यञ्जना भी ठीक तरह से की गई है। इस काव्य को व्यर्थ के शब्दालंकारों से लादने का प्रयत्न नहीं किया गया है पर अर्थालंकारों में उपमा, रूपक
और उत्प्रेक्षा के अच्छे प्रयोग दिखाई पड़ते हैं। छन्द की दृष्टि से इसकी रचना अनुष्टुप छन्दों में हुई है। सर्गान्त में दूसरे छन्दों का प्रयोग हुआ है। कहीं-कहीं बीच में भी अन्य वृत्तों का प्रयोग हुआ है।
कथावस्तु-उपर्युक्त रचनाओं में प्रत्येकबुद्ध करकण्डु, द्विमुख, नमि और नग्गति का जीवन-चरित्र अंकित है। ये चारों समकालीन थे। इनकी कथावस्तु का संक्षेप इस प्रकार है
१. चम्पानगरी में राजा दधिवाहन और रानी पद्मावती थे। एक समय दुष्ट हाथी द्वारा रानी के अपहरण के कारण उसके पुत्र का जन्म एक नगर के समीप श्मशान भूमि में हुआ। रानी साध्वी बन जाती है पर बालक का पालन
और शिक्षण एक मातंग के द्वारा हुआ। उसका नाम अवकर्णक रखा गया । उसकी देह पर रूक्षकण्डू थी। वह खेलकूद में राजा बनकर तथा अपने साथियों को प्रजा बनाकर उनसे कर के रूप में अपने शरीर को खुजवाता था इसलिए उसे लोग करकण्डु कहने लगे। कांचनपुर के राजा के मरने पर दैवयोग से करकण्डु वहाँ का राजा बनाया गया। एक बार उसने चम्पापुर के राजा दधिवाहन को पत्र लिखा जिसमें एक ब्राह्मण को ग्राम देने की बात थी पर दधिवाहन ने उसे अस्वीकार कर दिया। इससे क्रुद्ध होकर करकण्डु ने उस पर आक्रमण कर दिया । ऐसे समय साध्वी पद्मावती (माता) ने प्रकट होकर युद्ध का निवारण और पितापुत्र की पहिचान कराई। इस पर राजा दधिवाहन बहुत खुश हुआ और वृद्धावस्था के कारण करकण्डु को राज्यभार सौंपकर स्वयं उसने दीक्षा ग्रहण कर ली। एक बार अपनी आज्ञा से पुष्ट किये गये बैल को कालान्तर में वृद्ध देखकर राजा करकण्डु संसार से विरक्त हो एवं मुनिवेश धारणकर भ्रमण करने लगा।
२. पांचाल देश के कांपिल्यनगर में राजा यव को सभाभवन निर्माण करते समय एक चमकदार मुकुट मिला जिसके धारण करने से वह द्विमुख ( दो मुखवाला) मालूम पड़ने लगा और इससे उसका नाम द्विमुख पड़ गया। इसके
१. सर्ग २. १२८; ११. १२०-१२८, ३६५, ९. ३५ आदि.
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