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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास चारी वेश बनाकर अपनी माता रुक्मिणी के पास गए। वहाँ अपने चाचा बलराम और सत्यभामा की दासियों को तंग किया। पीछे प्रद्युम्न ने मायामयी रुक्मिणी को श्रीकृष्ण की सभा के आगे से हाथ पकड़ खींचते हुए ले जाकर श्रीकृष्ण को ललकारा। कृष्ण और प्रद्युम्न में खूब युद्ध हुआ। इसी बीच न.९९ ने आकर प्रद्युम्न का परिचय दिया। इससे सबको बड़ी प्रसन्नता हुई । प्रद्युम्न का अच्छा स्वागत हुआ तथा नगर में उत्सव मनाया गया। प्रद्युम्न ने बहुकाल तक राजसुख भोगकर और अन्त में दीक्षा धारणकर निर्वाण पद प्राप्त किया।
प्रद्यम्नचरित्र पर लिखी रचनाओं की उपर्युक्त तालिका के अनुसार यह कहा जा सकता है कि इस चरित्र को सर्वप्रथम स्वतंत्र चरित्र' एवं काव्य के रूप में प्रस्तुत करने का श्रेय परमारवंशीय नरेश सिन्धुराज' (९९५ -९९८ ई० ) के समकालीन आचार्य महासेन को है। इस काव्य का वर्णन शास्त्रीय काव्यों के प्रसंग में किया जायगा।
काल-क्रम से संस्कृत में द्वितीय रचना भट्टा० सकलकीर्ति ( १५ वीं शता०) रचित प्रद्युम्नचरित का उल्लेख मिलता है ।
प्रद्युम्नचरित-भट्टारक सोमकीर्तिकृत प्रद्युम्नचरित काल-क्रम से तीसरी रचना है। इसके दो संस्करण हैं : पड्ले में १६ सर्ग जिनका ग्रन्थपरिमाण ६००० श्लोक है, दूसरा १४ सगवाला ४८५० श्लोक-प्रमाण | मूल ग्रन्थ की संस्कृत बहुत ही सीधी-सादी है। इसके पढ़ने से यह मालूम होता है कि ग्रन्थकर्ता की यह पहली रचना होगी। इसमें अर्थगांभीर्य, सौन्दर्य तथा शब्दों का संगठन उदात्त नहीं है । फिर भी कथा-प्रबंध सुन्दर तथा चित्ताकर्षक है। __ रचयिता एवं रचनाकाल-ग्रन्थ के अन्त में दी गई प्रशस्ति में काव्यनिर्माता का परिचय दिया गया है। तदनुसार भट्टारक सोमकीर्ति काष्ठासंघीय नन्दीतट शाखा के सन्त थे तथा १०वीं शताब्दी के प्रसिद्ध भट्टारक रामसेन की परम्परा में होनेवाले भट्टारक थे। उनके दादागुरु लक्ष्मीसेन एवं गुरु भीमसेन थे। सं० १५१८ (सन् १४६१ ) में रचित एक ऐतिहासिक पद्यावली में इन्होंने अपने को काष्ठासंघ का ८७वाँ भट्टारक लिखा है। इनके गृहस्थ जीवन का कोई
१. माणिक्यचन्द्र दिग० जैन ग्रंथमाला, सं०८; 40 नाथूराम प्रेमी-जैन साहित्य - और इतिहास, पृ. ४११; जिनरत्नकोश, पृ. २६४. २. डा. गु० च० चौधरी, पोलिटिकल हिस्ट्री ऑफ नोर्दर्न इण्डिया, पृ० ९५. ३. जिनरत्नकोश, पृ० २६४.
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