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पौराणिक महाकाव्य
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पार्श्वनाथचरित नाम से कई और ग्रन्थकारों की रचनाएँ मिलती हैं। उनमें भट्टारक सकलकीर्ति ( १५वीं शती) कृत काव्य में २३ सर्ग हैं । इसकी भाषा सीधी, सरल एवं अलंकारमयी है। इसमें कमठ का नाम वायुभूति दिया गया है। सं० १६१५, अगहन सुदी १४ को नागौरी तपागच्छ के विद्वान् उपाध्याय पद्मसुन्दर ने भी सप्तसर्गात्मक पार्श्वनाथकाव्य की रचना की थी। ये आनन्दमेरु के प्रशिष्य और पद्ममेरु के शिष्य थे। आनन्दमेरु और पद्मसुन्दर अकबर बादशाह द्वारा सम्मानित थे। सं० १६३२ में तपागच्छीय कमलविजय के शिष्य हेमविजय ने ग्रन्थान ३१६० प्रमाण पार्श्वनाथचरित्र की रचना की । ग्रन्थ के अन्तरंग अवलोकन से पता चलता है कि वह हेमचन्द्र के त्रि० श० पु० च० में दिये गये पार्श्वचरित की प्रतिलिपि मात्र है । सं० १६४० कार्तिक सु० ५ को भट्टा० वादिचन्द्र ने १५०० श्लोक-प्रमाण पार्श्वपुराण की रचना वाल्मीकिनगर में की। इन्होंने पवनदूत, पावपुराण आदि कई रचनाएँ लिखी हैं। इनके गुरु का नाम भट्टा० प्रभाचन्द्र तथा दादागुरु का ज्ञानभूषण था।" सं० १६५४ में तपागच्छीय हेमसोम के प्रशिष्य और संघवीर के शिष्य उदयवीरगणि ने ५५०० ग्रन्थान-प्रमाण पाश्वनाथचरित लिखा जो संस्कृत गद्य में है और उसमें आठ विभाग हैं।" उसी संवत् १६५४ में वैशाख शुक्ल सप्तमी गुरुवार के दिन देवगिरि (दौलताबाद) के पार्श्वनाथ मन्दिर में भट्टा० श्रीभूषण के शिष्य चन्द्रकीर्ति ने भी पार्श्वपुराण की रचना की। इसमें १५ सर्ग हैं।' इसका प्रमाण २७१० ग्रन्थान है।
अन्तिम तीर्थकर महावीर पर प्राकृत-अपभ्रंश और देशी भाषाओं में जितनी कृतियाँ पाई जाती हैं उनकी अपेक्षा संस्कृत में स्वतंत्र रचनाएँ गिनी.
१. जिनरत्नकोश, पृ० २४६; राजस्थान के जैन सन्त, पृ० ११. २. जिनरत्नकोश, पृ० २४४; जैन साहित्य और इतिहाल, पृ० ३९५-३९८. ३. जिनरत्नकोश, पृ. २४५; प्रकाशित-चुन्नीलाल ग्रन्थमाला, बम्बई,
सं० १९७२. ४. जिनरत्नको, पृ. २४६; जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ३८५. ५. जिनरत्नकोश, पृ. २४५; प्रकाशित-जैनधर्म प्रसारक सभा, भावनगर,
सं० १९७०. ६. जिनरत्नकोश, पृ०२४६-१७; जैन साहित्य और इतिहास, पृ० ३९०; इसकी
हस्तलिखित प्रति ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन, बम्बई में है।
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