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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास कथाओं की योजना में भी माणिक्यचन्द्रसूरि ने अपनी मौलिकता प्रदर्शित की है। इसमें केवल चार ही पात्रों अर्थात् शान्तिनाथ, चक्रायुध, अशनिनिर्घोष और सुतारा के चरितचित्रण का प्रयास कवि ने किया है। शेष पात्रों का चरित्र परम्परा सम्मत है, उसका विकास नहीं हुआ।
इसकी भाषा सरल और प्रसादगुण युक्त है। अधिकतर इसमें छोटे समासों वाली या समासरहित पदावली का प्रयोग हुआ है। इसमें शब्दालंकार के यमक
और अनुप्रास के प्रयोग से भाषा में प्रवाह और माधुर्य आ गया है। अर्थालंकारों में उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक एवं विरोधाभास आदि अलंकारों की सुन्दर योजना हुई है। इसमें प्रायः अनुष्टुभ् छन्द का प्रयोग हुआ है पर प्रत्येक सर्ग के अन्त में छन्द बदल दिया गया है और मालिनी, वसन्ततिलका, शार्दूलविक्रीडित आदि कुछ छन्दों का प्रयोग हुआ है।
कविपरिचय एवं रचनाकाल-काव्य के अन्त में जा प्रशस्ति दी गई है उसमें उपलब्ध गुरुपरम्परा का वर्णन कवि कृत पूर्वरचना पार्श्वनाथचरित की प्रशस्ति के विवरण से पूर्णतः मिलता है। इससे यह निर्विवाद है कि इसके रचयिता माणिक्यचन्द्रसूरि हैं। इस काव्य का समाप्ति कसाम्बिति नगर में दीपावली के दिन सोमवार को हुई थी, जैसा कि कवि ने प्रशस्ति में कहा है :
दीपोत्सवे शशिदिने श्रीमन्माणिक्यसूरिभिः ।
कसामिवत्यां महापुर्यां श्रीग्रन्थोऽयं समर्थितः ।। पर इससे इस ग्रन्थ का रचना-संवत् नहीं मालूम होता। माणिक्यचन्द्र की अन्यकृति पार्श्वनाथचरित का रचनाकाल उसकी प्रशस्ति में वि० सं० १२७६ दिया गया है। सं० १२७६ में ही वस्तुपाल को मंत्रीपद मिला था
और जिनभद्रकृत प्रबंधावली में वस्तुपाल और माणिक्यचन्द्र के अच्छे सम्पर्क का विवरण दिया गया है। इससे उनका वि० सं० १२७६ के बाद तक जीवित रहना सुनिश्चित है । माणिक्यचन्द्र की एक अन्यकृति काव्यप्रकाश पर संकेत टीका है जिसकी प्रशस्ति से उसको रचना की ध्वनि सं० १२४६ अथवा सं० १२६६ निकलती है। इससे संभव है कि उक्त रचना संकेत टीका और पार्श्वनाथचरित के बीच या कुछ बाद अवश्य हुई होगी। मोटे रूप से शान्तिनाथचरित की रचना विक्रम की तेरहवीं शताब्दी का उत्तराध मानने में आपत्ति न होनी चाहिए। अनुमान किया जाता है कि यह कवि की वृद्धावस्था की कृति होगी क्योंकि इस कृति में कवि अपने पाण्डित्य प्रदर्शन के प्रति उदासीन है जब कि काव्य-प्रकाशसंकेत में उनके प्रौढ़ पाण्डित्य और असामान्य बुद्धि के दर्शन होते
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