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धातुपाठस्य टीकेयं नाम्ना धातुतरङ्गिणी । प्रक्षालयतु विज्ञानामज्ञानमलमान्तरम् ॥
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
इसमें 'सारस्वतव्याकरण' के अनुसार धातुपाठ के १८९५ धातुओं के रूप दिये गये हैं ।
इस ग्रन्थ की वि० सं० १६६६ में लिखित ७६ नत्रों की प्रति सं० ६००८ पर और वि० सं० १७९५ में लिखी हुई ५७ पत्रों की प्रति सं० ६००९ पर अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर में है ।
वृत्ति :
'सारस्वतव्याकरण' पर खरतरगच्छीय मुनि सहजकीर्ति ने लक्ष्मीकीर्ति सुनि की सहायता से वि. सं. १६८१ में एक वृत्ति की रचना की है। उसकी एक प्रति बीकानेर के श्रीपूज्यजी के भंडार में और दूसरी प्रति वहीं के चतुर्भुजजी भंडार में है ।
सुवोधिका :
'सा० व्या०' पर नागपुरीय तपागच्छ के आचार्य चन्द्रकीर्तिसूरि ने 'सुबोधिका' नामक वृत्ति वि. सं. १६२३ में बनाई है । विद्यार्थियों में इस वृत्ति का पठनपाठन अधिक है । वृत्तिकार ने कहा है :
स्वल्पस्य सिद्धस्य सुबोधकस्य सारस्वतव्याकरणस्य टीकाम् । सुबोधिकाख्यां रचयाञ्चकार सूरीश्वरः श्रीप्रभुचन्द्र कीर्तिः ॥ १०॥ गुण- पक्ष- कला संख्ये वर्षे विक्रमभूपतेः ।
टीका सारस्वतस्यैषा सुगमार्था विनिर्मिता ॥ ११ ॥
यह ग्रन्थ कई स्थानों से प्रकाशित है ।
प्रक्रियावृत्ति :
'सा० व्या०' पर खरतरगच्छीय मुनि विशालकीर्ति ने 'प्रक्रियावृत्ति' नामक वृत्ति की रचना १७ वीं शताब्दी में की है, जिसकी प्रति बीकानेर के श्री अगरचंदजी नाहटा के संग्रह में है ।
वृत्ति :
'सा० व्या०' पर क्षेमेन्द्र ने जो टीका रची है उसपर तपागच्छीय उपाध्याय भानुचन्द्र ने १७ वीं सदी में एक वृत्ति विवरण की रचना की है, जिसकी हस्तलिखित प्रतियां पाटन और छाणी के ज्ञानभंडारों में हैं ।
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