________________
४८
जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
षट्कारकविवरण :
पं० अमरचन्द्र नामक मुनि ने 'षट्कारकविवरण' नामक कृति की रचना की है । यह ग्रंथ अप्रकाशित है ।
शब्दार्थचन्द्रिकोद्धार :
मुनि हर्षविजयगणि ने 'शब्दार्थचन्द्रिकोद्वार' नामक व्याकरण-विषयक ग्रंथ की रचना की है, जिसकी ६ पत्रों की प्रति लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर, अहमदाबाद में प्राप्त है । यह ग्रंथ प्रकाशित नहीं हुआ है। रुचादिगणविवरण :
मुनि सुमतिकल्लोल ने 'रुचादिगणविवरण' नामक ग्रंथ रुचादिगण के धातुओं के बारे में रचा है। इसकी ५ पत्रों की प्रति मिलती है । यह ग्रंथ अप्रकाशित है ।
उणादिगणसूत्र :
आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने अपने व्याकरण के परिशिष्टस्वरूप 'उणादिगणसूत्र की रचना वि० १३ वीं शताब्दी में की है। मूल प्रकृति (धातु) में उणादि प्रत्यय लगाकर नाम ( शब्द ) बनाने का विधान इसमें बताया गया है। इसमें कुल १००६ सूत्र हैं ।
कई शब्द प्राकृत और देश्य भाषाओं से सीधे संस्कृत बनाये गये हैं । उणादिगणसूत्र-वृत्ति :
आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने अपने 'उणादिगणसूत्र' पर स्वोपज्ञ वृत्ति रची है विश्रान्तविद्याधरन्यास :
वामन नामक जैनेतर विद्वान ने 'विश्रान्तविद्याधर' व्याकरण की रचना की है, जो आज उपलब्ध नहीं है; परंतु उसका उल्लेख वर्धमानसूरि-रचित 'गणरत्नमहोदधि' ( पृ० ७२, ९२ ) में, और आचार्य हेमचन्द्रसूरिकृत 'सिद्ध हेमचंद्रशब्दानुशासन' (१.४.५२ ) के स्वोपज्ञ न्यास में मिलता है ।
१. यह ग्रंथ 'सिद्ध हेमचन्द्रव्याकरण- बृहद्वृत्ति', जो सेठ मनसुखभाई भगुभाई, अहमदाबाद की ओर से छपी है, में संमिलित है। प्रो० जे० कीटं ने इसका संपादन कर अलग से वृत्ति के साथ प्रकाशित किया है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org