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अभिषिच्य च लंकायां राक्षसेन्द्रं विभीषणं... ............"अयोध्यां प्रस्थितो रामः पुष्पकेण सुहृवृतः॥
(बालकांड १.८६) इसी प्रकार अयोध्या नगरी के वर्णन के प्रसंग में कवि कहता है कि वह नगरी विचित्र आठ भागों में विभक्त है, उत्तम व श्रेष्ठ गुणों से युक्त नर-नारियों से अधिवासित है तथा अनेक प्रकार के रत्नों से सुसजित और विमान-गृहों से सुशोभित है (चित्रामष्टापदाकारां वरनारीगणायुताम् । सर्वरत्नसमाकी) विमानगृहशोभिताम्-बाल० ५. १६)। श्लोक में निर्दिष्ट "विमानगृह' शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं। एक वास्तुविद्या (Architecture) के अर्थ में वह गृह जो उड़ते हुए विमानों के समान अत्यन्त ऊंचे तथा अनेक भूमियों (मंजिलों) वाले गगनचुंबी भवन जिनके ऊपर बैठे हुए लोगों को पृथिवीस्थ वस्तुएँ बहुत ही छोटी-छोटी दीखें जैसे विमान में बैठने वालों को प्रायः दीखती हैं। अर्थात् उस समय लोगों ने विमान में बैठकर ऊपर से ऐसे ही दृश्य देखे होंगे। दूसरा अर्थ 'विमान-गृह' से यह हो सकता है कि जिन्हें आज हम Hangers कहते हैं अर्थात् जहाँ विमान रखे जाते हैं। उस समय में विमान थे तथा रखे जाते थे और उनको बनाया जाता था यह इसी सर्ग के १९ वे श्लोक से प्रमाणित होता है :
___'विमानमिव सिद्धानां तपसाधिगतं दिवि' । ___ अयोध्या नगरी की नगर-रचना ( Town Planning) के विषय में वर्णन करते हुए कवि कहता है कि वह नगरी ऐसी बसी या विकसित नहीं थी कि कहीं भूमि रिक्त पड़ी हो, न कहीं अति धनी बसी थी, वरञ्च वह इतनी संतुलित व सुसजित रूप में बनी हुई थी जैसे-तपसा सिद्धानां दिवि अधिगतं विमानम् इव।' अर्थात् विमान-निर्माण विद्या में तपे हुए सिद्धशिल्पियों द्वारा आकाश में उड़ता विमान हो। पतंग उड़ाने वाला एक बालक भी यह जानता है कि यदि पतंग का एक पक्ष (पासा) दूसरे पक्ष की अपेक्षा भारी हुआ या संतुलित दोनों पक्ष न हुए तो उसकी पतंग ऊँची न उड़कर एक ओर को झुककर नीचे गिर पड़ेगी। इसी भाव को अभिव्यक्त करने के लिए विमान के दोनों पक्ष सिद्ध हों ऐसा दृष्टांत देकर नगरी के दोनों पक्षों को समविकसित दर्शाने के लिए विमान की उपमा दी गई है। प्राचीन भारत में वास्तुविद्या में प्रवीण शिल्पी (Expert Architects) नगरों को जलाशयों, नदियों या समुद्रतटों के साथ-साथ निर्माण करते थे। पाटलीपुत्र (पटना) नदी के किनारे १८
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