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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास शब्दार्णव-वृत्तिः ___ इस 'शब्दार्णव-व्याकरण' पर सहजकीर्तिगणि' ने 'मनोरमा' नामक स्वोपज्ञ वृत्ति की रचना की है। उपर्युक्त दस अधिकारों में १. संज्ञाकरण, २. शब्दों की साधना, ३. सूत्रों की रचना और ४. दृष्टान्त-इन चार प्रकारों से अपनी रचनाशैली का वृत्ति में निर्वाह किया है। इन्होंने सभी सूत्रों में पाणिनि-अष्टाध्यायी की 'काशिकावृत्ति' और अन्य वृत्तियों का आधार लिया है । वृत्ति के साथ समग्र व्याकरणग्रंथ १७००० श्लोक प्रमाण है। __इस ग्रंथ की ३७३ पत्रों की एक प्रति खंभात के श्री विजयनेमिसूरि ज्ञानभंडार (सं० ४६८) में है। यह ग्रंथ प्रकाशन के योग्य है। विद्यानन्दव्याकरण : ____ तपागच्छीय आचार्य देवेन्द्रसूरि के शिष्य विद्यानन्दसूरि ने 'बुद्धिसागर' की तरह अपने नाम पर ही 'विद्यानन्दव्याकरण' की रचना वि० सं० १३१२ में की है। यह व्याकरणग्रन्थ उपलब्ध नहीं है।
खरतरगच्छीय जिनेश्वरसूरि के शिष्य चन्द्रतिलक उपाध्याय ने जिनपतिसूरि के शिष्य सुरप्रभ के पास इस 'विद्यानन्दव्याकरण' का अध्ययन किया था ।'
आचार्य मुनिसुन्दरसूरि ने 'गुर्वावली' में कहा है कि 'इस व्याकरण में सूत्र कम हैं परन्तु अर्थ बहुत है इसलिये यह व्याकरण सर्वोत्तम जान पड़ता है । नूतनव्याकरण :
कृष्णर्षिगच्छ के महेन्द्रसूरि के शिष्य जयसिंहसूरि ने वि० सं० १४४० के आसपास 'नूतनव्याकरण' की रचना की है। यह व्याकरण स्वतंत्र है या 'सिद्धहेमशब्दानुशासन' के आधार पर इसकी रचना की गई है, यह स्पष्टीकरण नहीं हुआ है।
१. इन्होंने 'फलवर्द्धिपाश्र्वनाथ-महाकाव्य' की रचना ३०० विविध छंदमय
श्लोकों में की है । इसकी हस्तलिखित प्रति लालभाई दलपतभाई
भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद में है। २. विद्यानन्दसूरि के जीवन के बारे में देखिए-'गुर्वावली' पद्य १५२-१७२. ३. उपाध्याय चन्द्रतिलकगणि ने स्वरचित 'अभयकुमार-महाकाव्य' की प्रशस्ति
में यह उल्लेख किया है। ४. देखिये-'गुर्वावली' पद्य १७१.
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