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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
व्याकरण' को प्रक्रियाबद्ध किया है । अभयचन्द्र के समय, गुरु-शिष्य आदि परंपरा और उनकी अन्य रचनाओं के बारे में कुछ भी ज्ञात नहीं है ।
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शाकटायन-टीका :
यह ग्रन्थ प्रक्रिया
है, जिसके कर्ता 'वादिपर्वतवज्र' इस उपनाम से विख्यात भावसेन त्रैविद्य हैं । इन्होंने कातन्त्ररूपमाला टीका और विश्वतत्त्वप्रकाश ग्रन्थ लिखे हैं ।
रूपसिद्धि ( शाकटायनव्याकरण- टीका ) :
द्रविडसंघ के आचार्य मुनि दयापाल ने 'शाकटायन-व्याकरण' पर एक छोटीसी टीका बनायी है | श्रवणबेलगोल के ५४ वें शिलालेख में इनके विषय में इस प्रकार कहा गया है :
'हितैषिणां यस्य नृणामुदात्तवाचा निबद्धा हितरूपसिद्धिः । वन्द्यो दयापालमुनिः स वाचा, सिद्धः सतां मूर्द्धनि यः प्रभावैः ||१५||
दयापाल मुनि के गुरु का नाम मतिसागर था । वे 'न्यायविनिश्चय' और 'पार्श्वनाथचरित' के कर्ता वादिराज के सधर्मा थे । 'पार्श्वनाथचरित' की रचना शक सं० ९४७ ( वि० सं० २०८२ ) में हुई थी। इससे दयापाल मुनि का समय भी इसी के आस-पास मानना चाहिए ।
यह टोका ग्रंथ प्रकाशित है। मुनि दयापाल के अन्य ग्रंथों के विषय में कु भी ज्ञात नहीं है ।
गणरत्नमहोदधि :
श्वेतांबराचार्य गोविन्दसूरि के शिष्य वर्धमानसूरि ने 'शाकटायनव्याकरण' में जो गण आते हैं उनका संग्रह कर 'गणरत्नमहोदधि” नामक ४२०० श्लोकपरिमाण स्वोपज्ञ टीकायुक्त उपयोगी ग्रन्थ की वि० सं० १९९७ में रचना की है । इसमें नामों के गणों को श्लोकबद्ध करके गण के प्रत्येक पद की व्याख्या और उदाहरण दिये हैं । इसमें अनेक वैयाकरणों के मतों का उल्लेख किया गया है
१. यह कृति गुस्टव आपर्ट ने सन् १८९३ में प्रकाशित की है । उसमें उन्होंने शाकटायन को 'प्राचीन शाकटायन' मानने की भूल की है । सन् १९०७ बम्बई के जेष्टाराम मुकुन्दजी ने इसका प्रकाशन किया है।
२. यह ग्रंथ सन् १८७९-८१ में प्रकाशित हुआ है ।
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