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इन्हें "शौनक शास्त्र" में " आकूर्मादावरुणान्तं" अर्थात् कूर्म से लेकर वरुण पर्यन्त कहा है । आगे इनकी गणना की हुई है कि ये Spheres या क्षेत्र कितनी - कितनी दूर तक फैले हुए हैं और लिखा है कि इस प्रकार वाल्मीकिगणित से ही गणित - शास्त्र के पारंगत विद्वानों ने ऊपर के विमान मार्गों का निर्णय धारित किया है। उनका कथन है कि दो प्रवाहों के संसर्ग से आवर्तन होते हैं और इनके संधिस्थानों में विमान फँसकर तरंगों के कारण नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं । आजकल भी कई बार अनायास ही इन आवर्ती में फँस जाते हैं और नष्ट हो जाते हैं, ऐसी दुर्घटनाएँ देखने में आती हैं । " मार्गनिबन्ध" ग्रंथ में गणित इतनी जटिल त्रिकोणमिति ( Trignometry ) आदि द्वारा वर्णित है जो सर्वसाधारण के लिये अति कठिन है अतः उनका यहाँ वर्णन नहीं किया जा रहा है ।
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चौथा सूत्र है "अङ्गान्येकत्रिंशत्" । बोधानन्द व्याख्या करके बताते हैं कि शास्त्रों में सब विमानों के अंग तथा प्रत्यङ्गों का परस्पर अंगांगीभाव होना उतना ही आवश्यक है जितना शरीर के अह्नों में होना । विमान के अङ्ग ३१ होते हैं और उन अङ्गों को विमान के किस-किस भाग में किस-किस अंग को लगाया या रखा जावे, यह "छाया पुरुषशास्त्र " में भलीभाँति वर्णित है । आजकल विमानशास्त्री इस ज्ञान को Aeronautic architecture नाम देते हैं । विमान चालक के सुलभ और शीघ्र इन अंगों को प्रयोग में लाने के लिये इन अंगों की उचित स्थिति इस सूत्र की व्याख्यावृत्ति निर्देशन कर रही है।
इन अंगों की स्थितियों में सबसे पहिले “विश्वक्रियादर्शन" ( Paranomic view of cosmos ) दर्पण का स्थान बताया है, पुनः परिवेषस्थान, अंग-संकोचन यन्त्र स्थान होते हैं । विमानकण्ठ में कुण्ठिणीशक्तिस्थान, पुष्पिणीपिञ्जुलादर्श, नालपञ्चक, गुहागर्भादर्श, पञ्चावर्तक स्कन्धनाल, रौद्री दर्पण, शब्दकेन्द्रमुख, विद्युद्वादशक, प्राणकुण्डलीसंस्थान, वक्र प्रसारणस्थान, शक्तिपञ्जरस्थान, शिरःकील, शब्दाकर्षक, पटप्रसारणस्थान, दिशाम्पति, सूर्यशक्तिआकर्षणपञ्जर ( Solar energy absorption system ) इत्यादि यंत्रों के उचित स्थानों का न्यासन किया हुआ है ।
ऊपर वर्णित अनेकों शक्तिजनक संस्थानों, उनके प्रयोग की कलाओं तथा अनेक यंत्रों के विषय में पढ़ कर स्पष्ट अनुमान लगाया जा सकता है कि हमारे
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