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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
आचार्य रामचंद्रसूरि समर्थ आशुकवि के रूप में प्रसिद्ध थे । ये काव्य के गुण-दोषों के बड़े परीक्षक थे। इन्होंने नाटक आदि अनेक ग्रन्थों की रचना की है । गुरु हेमचंद्रसूरि ने जिन नाटक आदि विषयों पर नहीं लिखा था उन विषयों पर आचार्य रामचंद्रसूरि ने अपनी लेखनी चलाई है । ये प्रबन्धशतकर्ता भी माने गये हैं । इसका अर्थ 'सौ प्रबन्धों के कर्ता' नहीं अपितु 'प्रबन्धशत नामक ग्रन्थ के कर्ता' है । यह अर्थ बृहट्टिप्पणिका में सूचित किया गया है । प्रबन्धशत ग्रन्थ अभीतक नहीं मिला है। ऐसे समर्थ कवि की अकालमृत्यु सं० १२३० के आस-पास राजा अजयपाल के निमित्त हुई, ऐसी सूचना प्रबंधों से मिलती है ।
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इनके गुरुभाई गुणचन्द्रगणि भी समर्थ विद्वान थे । उन्होंने सवृत्तिक द्रव्यालंकार आचार्य रामचन्द्रसूरि के साथ में रचा है ।
आचार्य रामचंद्रसूरि ने निम्नलिखित ग्रन्थों की भी रचना की है।
:
१. कौमुदीमित्राणंद ( प्रकरण ), २. नलविलास ( नाटक ), ३. निर्भयभीम ( व्यायोग ), ४. मल्लिकामकरन्द ( प्रकरण ), ५. यादवाभ्युदय ( नाटक ), ६. रघुविलास ( नाटक ), ७. राघवाभ्युदय ( नाटक ), ८. रोहिणीमृगांक ( प्रकरण ), ९. वनमाला ( नाटिका ), १०. सत्यहरिश्चन्द्र ( नाटक ), ११. सुधाकलश ( कोश ), १२. आदिदेवस्तवन, १३. कुमारविहारशतक, १४. जिनस्तोत्र, १५. नेमिस्तव, १६. मुनिसुव्रतस्तव, १७. यदुविलास, १८. सिद्ध हेमचंद्र - शब्दानुशासन - लघुन्यास, १९. सोलह साधारण जनस्तव, २०. प्रसादद्वात्रिंशिका, २१. युगादिद्वात्रिंशिका, २२. व्यतिरेकद्वात्रिंशिका, २३. प्रबन्धशत ।
नाट्यदर्पण -विवृति :
आचार्य रामचन्द्रसूरि और गुणचन्द्रगणि ने अपने 'नाट्यदर्पण' पर स्वोपज्ञ विवृति की रचना की है। इसमें रूपकों के उदाहरण ५५ ग्रन्थों से दिये गये हैं । स्वरचित कृतियों से भी उदाहरण लिये हैं । इसमें १३ उपरूपकों के स्वरूप का आलेखन किया गया है ।
धनञ्जय के 'दशरूपक' ग्रन्थ को आदर्श के रूप में रखकर यह विवृति लिखी गयी है । विवृतिकार ने कहीं-कहीं धनञ्जय के मत से अपना भिन्न मत प्रदर्शित किया है । भरत के नाट्यशास्त्र में पूर्वापर विरोध है, ऐसा भी उल्लेख किया है अपने गुरु आचार्य हेमचन्द्रसूरि के 'काव्यानुशासन' से भी कहीं
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