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छन्द
१८ वीं शताब्दी में विद्यमान बिहारी मुनि ने अनेक ग्रन्थों की प्रतिलिपि की है । ' इनके विषय में और जानकारी नहीं मिलती । प्रस्तारविमलेन्दु की प्रति के अंत में इस प्रकार उल्लेख है : बिहारिमुनिना चक्रे । इति प्रस्तारविमलेन्दुः समाप्तः । सं० १९७४ मिति अश्विन् वदि १४ चतुर्दशी लिपीकृतं देवेन्द्रऋषिणा वैशेवालमध्ये के परऋषिनिमसार्थम् ॥
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छन्दोद्वात्रिंशिका :
शीशेखरगणि ने संस्कृत में ३२ पद्यों में छन्दोद्वात्रिंशिका नामक एक छोटी-सी परंतु उपयोगी रचना की है । इसमें महत्त्व के छन्दों के लक्षण बताये गये हैं । इसका प्रारम्भ इस प्रकार है : विद्युन्माला गीः गीः प्रमाणी स्याज्जरौ लगौ । अन्त में इस प्रकार उल्लेख है : छन्दोद्वात्रिंशिका समाप्ता । कृतिः पण्डितपुरन्दराणां शीलशेखरगणि विबुधपुङ्गवानामिति ॥
शीशेखरगणि कब हुए और उनकी दूसरी रचनाएँ कौन-सी थीं, यह अभी ज्ञात नहीं है ।
जयदेवछन्दस् :
छन्दशास्त्र के ‘जयदेवछन्दस्' नामक ग्रंथ के कर्ता जयदेव नामक विद्वान् थे | उन्होंने अपने नाम से ही इस ग्रन्थ का नाम 'जयदेवछन्दस्' रखा है । ग्रंथ के मंगलाचरण में अपने इष्टदेव वर्धमान को नमस्कार करने से प्रतीत होता है कि वे जैन थे । इतना ही नहीं, वे श्वेतांबर जैनाचार्य थे, ऐसा हलायुधरे और केदार भट्ट के 'वृत्तरत्नाकार' के टीकाकार सुल्हण ( वि० सं० १२४६ ) के जयदेव को 'श्वेतपट' विशेषण से उल्लिखित करने से जान पड़ता है ।
जयदेव कब हुए, यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता, फिर भी
१. ऐसी बहुत-सी प्रतियों अहमदाबाद के ला० द० भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर के संग्रह में हैं । १५ पत्रों की प्रस्तारविमलेन्दु की एक प्रति वि० सं० १९७४ में लिखी हुई मिली है ।
२. इस ग्रन्थ की एक पत्र की हस्तलिखित प्रति अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामंदिर के हस्तलिखित संग्रह में है । प्रति १७ वीं शताब्दी में लिखी गई मालूम होती है ।
३. ' अन्यदतो हि वितानं' श्वेतपटेन यदुक्तम् ।
४. ' अन्यदतो हि वितानं' शूद्रश्वेतपटजयदेवेन यदुक्तम् ।
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