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१३३ प्रशस्ति में कहा गया है कि बुद्धिसागरसूरि ने उत्तम व्याकरण और 'छन्दःशानं' की रचना की।
इन्होंने वि० सं० १०८० में 'पञ्चग्रन्धी' नामक संस्कृत व्याकरण की रचना की। यह ग्रंथ जैसलमेर के ग्रंथभंडार में है, परंतु उनके रचे हुए 'छन्दःशास्त्र' का अभी तक पता नहीं लगा। इसलिये इसके बारे में विशेष कहा नहीं जा सकता।
संवत् ११४० में वर्धमानसूरि-रचित 'मनोरमाकहा' की प्रशस्ति से मालूम होता है कि जिनेश्वरसूरि और उनके गुरुभाई बुद्धिसागरसूरि ने व्याकरण, छन्द, काव्य, निघण्टु, नाटक, कथा, प्रबन्ध इत्यादिविषयक ग्रंथों की रचना की है, परन्तु उनके रचे हुए काव्य, नाटक, प्रबन्ध आदि के विषय में अभी तक कुछ जानने में नहीं आया है। छन्दोनुशासन:
'छन्दोनुशासन' ग्रंथ के रचयिता जयकीर्ति कन्नड प्रदेशनिवासी दिगंबर जैनाचार्य थे। इन्होंने अपने ग्रंथ में सन् ९५० में होनेवाले कवि असग का स्पष्ट उल्लेख किया है । अतः ये सन् १००० के आसपास में हुए, ऐसा निर्णय किया जा सकता है।
संस्कृतभाषा में निबद्ध जयकीर्ति का 'छन्दोनुशासन' पिङ्गल और जयदेव की परंपरा के अनुसार आठ अध्यायों में विभक्त है । इस रचना में ग्रन्थकार ने जनाश्रय, जयदेव, पिंगल, पादपूज्य (पूज्यपाद ), मांडव्य और सैतव की छंदोविषयक कृतियों का उपयोग किया है। जयकीर्ति के समय में वैदिक छंदों का प्रभाव प्रायः समाप्त हो चुका था। इसलिये तथा एक जैन होने के नाते भी उन्होंने अपने ग्रंथ में वैदिक छंदों की चर्चा नहीं की।
यह समस्त ग्रंथ पद्यबद्ध है । ग्रंथकार ने सामान्य विवेचन के लिये अनुष्टुप् , आर्या और स्कन्धक (आर्यागीति)-इन तीन छंदों का आधार लिया है, किन्तु छंदों के लक्षण पूर्णतः या अंशतः उन्हीं छंदों में दिये गये हैं जिनके वे लक्षण हैं। अलग से उदाहरण नहीं दिये गये हैं। इस प्रकार इस ग्रंथ में लक्षणउदाहरणमय छंदों का विवेचन किया गया है ।
१. यह 'जयदामन्' नामक संग्रह-ग्रन्थ में छपा है।
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