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जैन साहित्य का बृहद् इतिहास
अनुपलब्ध प्राकृत-व्याकरण :
१. दिगंबर आचार्य समन्तभद्र ने 'प्राकृतव्याकरण' की रचना की थी ऐसा उल्लेख मिलता है' परन्तु उनका व्याकरण उपलब्ध नहीं हुआ है ।
२. धवलाकार दिगंबराचार्य वीरसेन ने अज्ञातकर्तृक पद्यात्मक 'प्राकृतव्याकरण' के सूत्रों का उल्लेख किया है परन्तु यह व्याकरण भी प्राप्त नहीं हुआ है ।
३. श्वेतांत्रराचार्य देवसुन्दरसूरि ने 'प्राकृत-युक्ति' नामक प्राकृत-व्याकरण की रचना की थी, जिसका उल्लेख 'जैन ग्रंथावली' पृ० ३०७ पर है । यह व्याकरण भी देखने में नहीं आया ।
प्राकृतलक्षण :
चण्ड नामक विद्वान् ने 'प्राकृतलक्षण' नाम से तीन और दूसरे मत से चार अध्यायों में प्राकृतव्याकरण की रचना की है, जो उपलब्ध व्याकरणों में संक्षिप्ततम और प्राचीन है । इस में सब मिलाकर ९९ और दूसरे मत से १०३ सूत्रों में प्राकृत भाषा का विवेचन किया गया है ।
आदि में भगवान् वीर को नमस्कार करने से और 'अर्हन्त' (२४, ४६ ), 'जिनवर' (४८) का उल्लेख होने से चण्ड का जैन होना सिद्ध होता है । चण्ड ने अपने समय के वृद्धमतों का निरीक्षण करके अपने व्याकरण की रचना की है।
प्राकृत शब्दों के तीन रूप - १. तद्भव, २ तत्सम और ३. देश्य सूचित कर लिङ्ग और विभक्तियों का विधान संस्कृतवत् बताया है । चौथे सूत्र में व्यत्यय का निर्देश करके प्रथम पाद के ५ वें सूत्र से ३५ सूत्रों तक संज्ञा और विभक्तियों के रूप बताये हैं । 'अहम्' का 'हरं' आदेश, जो अपभ्रंश का विशिष्ट रूप है, उस समय में प्रचलित था, ऐसा मान सकते हैं । द्वितीय पाद के २९ सूत्रों में स्वरपरिवर्तन, शब्दादेश और अव्ययों का विधान है। तीसरे पाद के ३५ सूत्रों में व्यंजनों के परिवर्तनों का विधान है ।
इन तीन पादों में सूत्रसंख्या ९९ होती है जिनमें व्याकरण समाप्त किया गया है । कई प्रतियों में चतुर्थ पाद भी मिलता है, जो चार सूत्रों में है । उसमें
1. A. N. Upadhye: A Prakrit Grammar Attributed to Samantabhadra-Indian Historical Quarterly, Vol. XVII, 1942, pp. 511-516.
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