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________________ व्याकरण जिन जैन विद्वानों ने प्राकृत व्याकरणग्रन्थ निर्माणकर भारतीय साहित्य की श्रीवृद्धि में अपना अमूल्य योग प्रदान किया है उनके संबंध में यहाँ विचार करेंगे। प्राकृत भाषा के साथ-साथ अपभ्रंश भाषा का विचार भी यहां आवश्यक जान पड़ता है। प्राकृत का अन्त्य स्वरूप और प्राचीन देशी भाषाओं से सीधा संबंध रखनेवाली भाषा ही अपभ्रंश है। इस भाषा का व्याकरणस्वरूप छठीसातवीं शताब्दी से ही निश्चित हो चुका था। महाकवि स्वयंभू ने अपभ्रंश भाषा के 'स्वयंभू व्याकरण' की रचना ८ वीं शताब्दी में की थी जो आज उपलब्ध नहीं है। इस समय से ही अपभ्रंश भाषा में स्वतन्त्र साहित्य का व्यवस्थित निर्माण होते-होते वह विस्तृत और विपुल बनता गया और यह भाषा साहित्यिक भाषा का स्थान प्राप्त कर सकी। इस साहित्य को देखते हुए पुरानी गुजराती, राजस्थानी आदि देशी भाषाओं का इसके साथ निकटतम सम्बन्ध है, ऐसा निःसंशय कह सकते हैं। गुजरात, मारवाड़, मालवा, मेवाड़ आदि प्रदेशों के लोग अपभ्रंश भाषा में ही रुचि रखते थे। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने समय के प्रवाह को देखकर करीब १२० सूत्रों में 'अपभ्रंश-व्याकरण' की रचना की है, जो उपलब्ध व्याकरणों में विस्तृत और उत्कृष्ट माना गया है। १. गौडोद्याः प्रकृतस्थाः परिचितरुचयः प्राकृते लाटदेश्याः, सापभ्रंशप्रयोगाः सकलमरुभुवष्टक-मादानकाश्च । आवन्त्याः पारियात्राः सहदशपुरजैर्भूतभाषां भजन्ते, यो मध्ये मध्यदेशं निवसति स कविः सर्वभाषानिषण्णः ॥ राजशेखर-काव्यमीमांसा, अध्याय ९-१०, पृ० ४८-५१. पठन्ति लटभं लाटा प्राकृतं संस्कृतद्विषः । अपभ्रंशेन तुष्यन्ति स्वेन नान्येन गूर्जराः ॥ भोजदेव-सरस्वतीकण्ठाभरण, २-१३. सुराष्ट्र-त्रवणाद्याश्च पठन्त्यर्पितसौष्ठवम् । अपभ्रंशवदंशानि ते संस्कृतवचास्यपि ॥ राजशेखर-काव्यमीमांसा, पृ० ३४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002098
Book TitleJain Sahitya Ka Bruhad Itihas Part 5
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhujbal Shastri, Minakshi Sundaram Pillai
PublisherParshwanath Shodhpith Varanasi
Publication Year1993
Total Pages336
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Literature, & Grammar
File Size12 MB
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