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कर्मप्राभृत की व्याख्याएँ
अर्थात् विशेषकथन का प्रतिपादन करते हुए पुनः ऋषभसेन का नामोल्लेख किया है ।"
अन्तरानुगम - अन्तरानुगम का व्याख्यान प्रारम्भ करने के पूर्व टीकाकार ने प्रथम जिन भगवान् ऋषभदेव को नमस्कार किया है । तदनन्तर नाम, स्थापना द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के भेद से अन्तर का विवेचन किया है । आचार्य ने बताया है कि अन्तर, उच्छेद, विरह, परिणामान्तरगमन. नास्तित्वगमन और अन्यभावव्यवधान एकार्थक हैं । २
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दक्षिणप्रतिपत्ति और उत्तरप्रतिपत्ति — धवलाकार ने दक्षिण व उत्तर की भिन्न-भिन्न मान्यताओं का उल्लेख करते हुए दक्षिणप्रतिपत्ति का समर्थन किया है । 'उक्कस्सेण तिणि पलिदोवमाणि देसूणाणि' सूत्र का व्याख्यान करते हुए टीकाकार ने लिखा है कि इस विषय में दो उपदेश हैं । तिर्यञ्चों में उत्पन्न हुआ जीव दो मास और मुहूर्त - पृथक्त्व से ऊपर सम्यक्त्व तथा संयमासंयम को प्राप्त करता है । मनुष्यों में गर्भकाल से प्रारम्भ कर अन्तर्मुहूर्ताधिक आठ वर्ष व्यतीत हो जाने पर सम्यक्त्व, संयम तथा संयमासंयम की प्राप्ति होती है । यह दक्षिणप्रतिपत्ति है । दक्षिण, ऋजु और आचार्यपरम्परागत एकार्थक हैं । तिर्यञ्चों में उत्पन्न हुआ जीव तीन पक्ष, तीन दिवस और अन्तर्मुहूर्त से ऊपर सम्यक्त्व तथा संयमासंयम को प्राप्त करता है । मनुष्यों में आठ वर्ष से ऊपर सम्यक्त्व, संयम तथा संयमासंयम की प्राप्ति होती है । यह उत्तरप्रतिपत्ति है । उत्तर, अनृजु और आचार्य परम्परानागत एकार्थक हैं । 3
१. किमट्ठ दुविहो णिद्देसो उसहसेणादिगणहरदेवेहि कीरदे ? पृ० ३.
२. पुस्तक ५,
वही, पृ० ३२३. ३. एत्थ वे उवदेसा । तं जहा - तिरिक्खेसु वेमासमुहुत्तपुधत्तस्सुवरि सम्मत्तं संजमासंजमं च जीवो पडिवज्जदि । मणुसेसु गब्भादिअट्ठवस्सेसु अंतोमुहुत्तब्भहिएसु सम्मत्तं संजमं संजमासंजमं च पडिवज्जदि ति । एसा दक्खिणपडिवत्ती । दक्खिणं उज्जुवं आइरियपरंपरागदमिदि एयट्टो । तिरिक्खेसु तिष्णिपक्खतिष्णिदिवस अंतोमुहुत्तस्सुवरि सम्मत्तं सजमासंजमं च पडिवज्जदि । मणुसेसु अट्ठस्साणमुवरि सम्मत्तं संजमं संजमासंजमं च पडिवज्जदिति । एसा उत्तरपडिवत्ती । उत्तरमणुज्जुवं आइरियपरंपराए णागदमिदि एयट्टो |
- वही, पृ० ३२.
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