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कर्मप्राभृत की व्याख्याएँ
मंगल, निमित्त, हेतु, परिमाण, नाम और कर्ता-~-इन छः अधिकारों का व्याख्यान करने के बाद आचार्य को शास्त्र की व्याख्या करनी चाहिये, इस नियम को उद्धृत करने के पश्चात् टीकाकार ने मंगल-सूत्र का व्याख्यान किया है :
मंगल-णिमित्त-हेऊ परिमाणं णाम तह य कत्तारं।
वागरिय छ प्पि पच्छा वक्खाण उ सत्थमाइरियो !! मंगल-सूत्र के व्याख्यान में ६८ गाथाएँ और श्लोक उद्धृत किये गये हैं।
श्रुतकर्ता-श्रुत के कर्ता का निरूपण करते हुए टीकाकार ने कहा है कि ज्ञानावरणादि कर्मों के निश्चय-व्यवहाररूप विनाश-कारणों की विशेषता से उत्पन्न हुए अनन्तज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, क्षायिक-सम्यक्त्व, दान, लाभ, भोग और उपभोग की निश्चय-व्यवहाररूप प्राप्ति की अतिशयभूत नौ केवल-लब्धियों से युक्त वर्धमान महावीर ने भावश्रुत का उपदेश दिया तथा उसी काल और उसी क्षेत्र में क्षयोपशमविशेष से उत्पन्न हुए चार प्रकार के निर्मल ज्ञान से युक्त, गौतम-गोत्रीय ब्राह्मण, सकल दुःश्रुति में पारंगत एवं जीवाजीवविषयक सन्देह को दूर करने के लिए महावीर के पादमूल में उपस्थित इन्द्रभूति ने उसका अवधारण किया । भावभ्रतरूप पर्याय से परिणत इन्द्रभूति ने बारह अंग और चौदह पूर्वरूप3 ग्रन्थों की रचना की । इस प्रकार भावभुत अर्थात् अर्थ-पदों के कर्ता महावीर तीर्थंकर हैं तथा द्रव्यश्रुत अर्थात् ग्रन्थ-पदों के कर्ता गौतम गणधर हैं। गौतम गणधर ने दोनों प्रकार का श्रुतज्ञान लोहायं को दिया । लोहार्य ने वह ज्ञान जम्बूस्वामी को दिया। परिपाटो-क्रम से ये तीनों ही सकल श्रुत के धारक कहे गये हैं। अपरिपाटी से तो सकल श्रुत के धारक संख्येय सहस्र हैं।
गौतमदेव, लोहार्याचार्य" और जम्बूस्वामी-ये तीनों ही सात प्रकार की लब्धि से सम्पन्न तथा सकल श्रुतसागर के पारगामी होकर केवलज्ञान उत्पन्न कर
१. षट्खण्डागम, पुस्तक १, पृ० ७. २. वही, पृ० १०-९१. १. पुस्तक ९, पृ० १२९ पर उल्लेख है कि इन्द्रभूति ने बारह अंगों तथा चौदह
अंगबाह्य प्रकीर्णकों की रचना की। ४. पुस्तक १, पृ० ६३-६५. ५. जयधवला व ( इन्द्रनन्दिकृत) श्रुतावतार में लोहार्याचार्य के स्थान पर उनके अपर नाम सुधर्माचार्य का उल्लेख है।
-वही, पृ० ६६.
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